-डा० साधना शुक्ला
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5- सौन्दर्य चेतना
निराला के गीतिकाव्य में सौंदर्य-चेतना का अत्यन्त भव्य व समृद्ध रूप देखने को मिलता है। निराला के गीतों में मानवीय प्राकृतिक तथा भावात्मक सौन्दर्य के अनेक रूप-चित्र मिलते हैं। इन सौन्दर्य गीतों के भाव नूतन, सजीव और संवेदनशील हैं। परिमल, गीतिका और अनामिका के अनेक गीतों में सौन्दर्रू की यह भावना अधिक प्रखरता के साथ दिखाई देती है। “सौन्दर्यानुभूति के कवि निराला की सौन्दर्य-दृष्टि अत्यंत संयमित और पवित्र है।”1
निराला की सौन्दर्य चेतना की अभिव्यक्ति अत्यन्त महत्वपूर्ण है। निराला नैसर्गिक सौन्दर्य के ईश्वरीय सौन्दर्य, वैभव और विलास के कवि भी हैं। उनके इन्द्रिय-बोध से प्राप्त सौन्दर्य लालसा-सप्ष्ट है-
स्पर्श में अनुभव रोमांच
हर्ष रूप में परिचय
विराट सुख गंध में रस में
रस में मज्जनानन्द
शब्दों में अलंकार।
रूप रस, गंध और स्पर्ष के चिर सौन्दर्य को स्वीकार करने वाले निराला स्वयं कहते हैं-
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
ज्योति स्वरणा के चरणों पर।
अपने सौन्दर्य बोध के बारे में स्वयं कहते हैं, “चित्रकार जितनी सुन्दर कल्पना कर सकता है, उसका चित्र उतना ही सुन्दर होता है। सौन्दर्य की ही कल्पना ललित कला का मुख्य आधार है।” अपने इन सौन्दर्य-चित्रों को मानवीय सौन्दर्य के साथ प्रकृति के सौन्दर्य से भी अपने गीतों में उन्होंने रंग भरे हैं। निराला के तुलसीदास जो प्राकृतिक सौन्दर्य विचरण करते-करते पत्नी के रूप-सौन्दर्य की ओर आकृष्ट होते हैं। यही सौन्दर्य चेतना तुलसीदास में कवि मन का विकास करती है।
सौन्दर्य भावना यह क्रिया अपने में अनुपम है। पंत जी कहते हैं कि “निराला की सौन्दर्य-वृत्ति रहस्यात्मक है। उसमें आत्मिक चेतना का ओज तथा प्रकाश है।” निराला के सौन्दर्य चित्र अविभाज्य हैं। इन सौन्दर्य चित्रों से भरी हुई रहस्य भावना ही उनकी सम्पूर्णता है। विजन वन वल्लरी पर स्नेह स्वप्न-मग्न सुहाग भरी ‘जूही की कली’ का सौन्दर्य ऐसा ही अखण्ड सौन्दर्य है। निराला की सौन्दर्य दृष्टि प्राकृतिक सौन्दर्य से रंगी हुई प्रणय के लिये मुक्त आनन्द की अभिव्यंजना करती है। सूक्ष्म उपमान और प्रतीकों के माध्यम से कवि ने अपने इन भाव-चित्रों की सर्जना की है। निराला की ‘प्रेयसी’ तारुण्य की प्रथम तरंग से प्रियतम तरु का तन घेरकर ज्योतिर्मयी बन जाती है-
घेर अंग-अंग को
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की
’ ’ ’ ’ ’
लिखे नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,
प्रथम बसन्त में गुच्छ-गुच्छ,
दृगों में रंग गई प्रणय रश्मि
चूर्ण हो विच्छुरित।
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही
बहु रंग भाव भर
शिशिर-ज्यों पत्र पर कनक प्रभात में,
किरण-सम्पात से
दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों
चिरते मंजु मुख
गुंज-मृत्यु अलि पुंज।
इस सौन्दर्य वर्णन मे कवि की भावना ऐन्द्रिकता की ओर बढ़ने लगती है। इन सौन्दर्य चित्रों में प्रणय की पावनता समाप्त होकर कामुकता की सीमा छूने लगती है-
नायक ने चूमे कपोल
डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल !
’ ’ ’ ’ ’ ’
कौन कहे ?
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
झोंकों से झाड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिये गोरे कपोल गोल।
इसी तरह स्फटिक शिला में सद्यः स्नाता का सौंन्दर्य, खजोहरा में बुआ का तालाब स्नान, वन बेला में भीष्म ताप, प्रस्वेद, कम्ब और सुख-सम्य की कल्पना, तथा पंचवटी प्रसंग में सूर्पनखा का यौवन मदमस्त सौंदर्य चित्र, ऐसे ऐन्द्रिकता और मांसलता से परिपूर्ण हैं।
इन कतिपय गीतों को छोड़कर शेष सौन्दर्य गीतों में प्रणय की पावनता और मार्मिकता विद्यमान है। संध्या सुन्दरी, कविता, नर्गिस, शेफालिका, जैसे गीतों में मानवीकरण द्वारा ऐसे भव्य और सुन्दर सौन्दर्य का निरूपण निराला जी ने किया है जो अन्यत्र कहीं भी दुर्लभ है। इनके अतिरिक्त ‘पहचाना’, उनकी स्मृति, शृंगारमयी, बहू, आदि गीतों में भी सुन्दर भावना सन्निहित है।
इसी तरह गीतिका के अधिकांश गीतों में यह दिव्य, मानवीकृत, आलंकारिक सौन्दर्य भावना विद्यमान है।
प्रिय के साथ रात्रि जागरण से अलसाये नेत्रों में प्रिय के अरुण अनुराग की जो झलक है, ऐसा सुन्दर सौन्दर्यांकन अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। सौन्दर्य गीत में वासना की मुक्ति के साथ उदात्त सौन्दर्य की भावना विद्यमान है-
प्रिय यामिनी जागी,
अलस पंकज-दृग-अरुण-मुख तरुण अनुरागी
खुले केश अशेष शोभा भर रहे
पृष्ठ ग्रीवा-बाहु-उर पर तर रहे,
बादलों में घिर अपर दिनकर रहे,
ज्योति की तन्वीतड़ित-द्युति ने क्षमा माँगी।
हेर उर पर फेर मुख के बाल,
लख चतुर्दिक चली मंद मराल,
गेह में प्रिय-स्नेह की जयमाल,
वासना की मुक्ति, मुक्ता त्याग में तागी।1
गीतिका के ही एक और गीत में कवि ने ऐसे दिव्य सौन्दर्य का चित्र खींचा है कि उस नायिका के कोमल शरीर से सुगन्ध आती है। ऐसी दिव्य -सौन्दर्य के हृदय में प्रणय का सागर लहराता रहता है-
कौन तुम शुभ्र किरण वसना ?
सीखा केवल हँसना- केवल हँसना
शुभ्र किरण वसना-
मंद मलय भर अंग- गंध मृदु
बादल अलकावलि कुंचित-ऋजु,
तारकहार, चन्द्र मुख, मधु ऋतु
सुकृत पुंज-आशना।
निराला ने सौन्दर्य को दिव्य चेतना का प्रतीक माना है क्योंकि- “सौन्दर्य वर्णन में निराला वासना से मानसिकता और मानसिकता से दिव्यता की ओर बढ़ गये हैं।”
इसी तरह ‘दृगों की कलियाँ’ नवल खुली, स्पर्श से लाज लगी, आदि गीतों में भी ऐसे ही दिव्य सौन्दर्य का वर्णन है। इसी तरह अर्चना में केशर की कलि की पिचकारी प्रिय के हाथ लगाये जागी, किरणों की परियाँ मुस्कायीं, चली निशि में तुम आईं प्रात, तथा घन आये घनश्याम न आये आदि गीत भी सौन्दर्य भावना से अनुप्राणित हैं। इनके बाद के गीत संग्रहों में कवि की चिंतन वृत्ति सामाजिक और आध्यात्मिक हो जाने के कारण इन सौन्दर्य गीतों का सृजन केवल प्रकृति के सौन्दर्य चित्रण के रूप में ही हो सका है। विस्तृत रूप में वह भी नहीं। जैसे- पारस, मदन हिलोर, नदेतन, प्राण तुम पावन आदि।
निराला जी की सौन्दर्यानुरागिनी शृंगारमयी सौन्दर्य भावना में प्रेम की अभिव्यक्ति प्रकृति को साथ लेकर सांकेतिक, प्रतीक तथा मानवीकृत रूप में हुयी है जो सहज ही हृदय को आकर्षित करती है।
6- प्रेम व्यंजना
प्रेम मानव हृदय का शाश्वत भाव है। प्रेम सृष्टि का मूलाधार है। क्योंकि सृष्टि की रचना का कारण यही प्रेम है, प्रेम उस मधुरतम सौरभ से पूरित सुमन की तरह है जिसे पा लेने के बाद संसार में और कुछ पाने की इच्छा ही नहीं रहती हैं ऐसे पावन और शाश्वत भाव के बहुविधि भाव-चित्र निराला जी के गीत काव्य में मिलते हैं।
वैसे भी छायावादी काव्य में प्रेम की प्रधानता होने पर संपूर्ण छायावादी काव्य को प्रेम काव्य समझा जाने लगा है। प्रेम के विश्व व्यापी प्रभाव से सभी छायावादी कवि प्रभावित थे क्योंकि “छायावाद का कवि प्रेम को शरीर की भूख न समझ कर एक रहस्यमयी चेतना समझता है। जिस कविता ने नवीन सौन्दर्य चेतना जगा कर एक वृहद् समाज की अभिरुचि का परिस्कार किया........उस कविता का गौरव अक्षय है।”
निराला में प्रेम और सौन्दर्य की भावना अधिक दिव्य तथा उदत्त रूप में दिखाई देती है।
निराला प्रेम को शाश्वत अैार अनादि तत्त्व मानते हैं, वे यह भी मानते हैं कि प्रेम सुधा का पान हर साधारण मनुष्य नहीं कर सकता बल्कि कोई दिव्य देह- धारी ही इस पयोधि में कूद कर प्रेमामृत पान करते हैं-
प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है
सदा ही निःसीम भू पर।
प्रेम की महोर्मि-माला तोड़ देती क्षुद्र ठाट,
जिसमें संसारियों के सारे क्षुद्र मनोवेश
तृण-सम बह जाते हैं।
’ ’ ’ ’ ’
दिव्य देह धारी ही कूदते हैं इसमें प्रिय,
पाते हैं प्रेमामृत
पीकर अमर होते हैं।1
प्रेम के प्रति ऐसे सुंदर विचारों से निर्मित है निराला के प्रेम गीतों की पीठिका जिसमें भावनागत दुर्बलता कहीं नहीं है, “प्राकृतिक सौन्दर्य से रँगा उनका प्रेम उत्तेजना और स्थूल आकर्षण की नहीं बल्कि उल्लास और आनन्द की अभिव्यंजना करता है।”
प्रेमाभाव की प्रधानता निराला के गीतिकाव्य में सर्वाधिक है। उनके अधिकतर गीतों में प्रेम की अभिव्यंजना हुई है। निराला की दृष्टि में प्रेम ही वह सुदृढ़ बंधन है जिसमें दो हृदय बँधकर रह जाते हैं-
बाँध बाहुओं में रूपों ने
समझा-अब पाया-पाया,
’ ’ ’ ’
समझे दोनों, था न कभी वह
प्रेम, प्रेम की थी छाया।
प्रेम सदा ही तुम असूत्र हो
उर-उर के हीरें के हार,
गुँथे हुये प्राणियों को भी
गुँथे न कभी, सदा ही सार।
प्रेम को असूत्र कह कर निराला जी ने प्रेम की स्वच्छंदता और निर्बन्धता का बोध कराया है।
निराला का प्रेम उनके गीतों में संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों में प्रिया के स्मृति प्रेम के रूप में ही व्यक्त हुआ है। प्रिया से मिलन में, विरह में तथा प्रिया के सौन्दर्यावलोकन सभी में कवि के प्रेम का अधार स्मृति ही है। प्रियतमा का दर्शन, स्पर्श, चुम्बन, सभी कुछ प्राणधन के स्मरण में ही कवि कर सकते हैं।
कवि की प्रेयसी ही उनके काव्य की प्रेरणा है- ‘प्रिया से’ नामक गीत में कवि ने यही भाव व्यक्त किया है-
मेरे इस जीवन की है तू सरस साधना कविता,
मेरे तरु की है तू कुसुमित प्रिये, कल्पना लतिका
मधुमय मेरे जीवन की प्रिय है तू कमल गामिनी,
मेरे कुंज कुटीर द्वार की कोमल चरण गामिनी,
’ ’ ’ ’ ’ ’
तेरे सहज रूप से रँगकर
झरे गान के मेरे निर्झर,
भरे अखिल-सर,
स्वर से सिक्त हुआ संसार।
निराला जी की प्रेयसी में प्राकृतिक सौन्दर्य से पूरित वातावरण में प्रिय मिलन की मधुर स्मृति का जो भाव पूर्ण चित्र है वह मनोहारी है-
याद है उषःकाल-
प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,
प्रथम-पुलक, फुल्ल-चुम्बित वसन्त के,
मंजरित लतापर
प्रथम विहग बालिकाओं का मुखर स्वर
प्रथम-मिलन-गान
’ ’ ’
रूप के द्वार पर
मोह की माधुरी
कितने ही बार पी मूर्च्छित हुये हो, प्रिय,
जागती में रही,
गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।
प्रिया के सौन्दर्य उसके प्रेम की स्मृति में निमग्न कवि कह उठते हैं-
मृदु-सुगन्ध-सी कोमल दल फूलों की
शशि-किरणों की-सी वह प्यारी मुस्कान,
स्वच्छन्द गगन सी मुक्त वायु सी चंचल
खोयी स्मृति की फिर आई सी पहचान।
निराला के राम भी प्रिया से हुये साक्षात्कार अनुरोध और उसके गरिमामयी सौन्दर्य की मधुर स्मृति में निमग्न हो जाते हैं। उन्हें पृथ्वी तनया, कुमारिका की वह दिव्य छवि याद हो आती है जिसे कभी उन्होंने निष्पलक देखा था। निराला को बार-बार प्रेम के स्मरण क्रम यमुना का वह तट याद आता है जहाँ कभी गोपिकाओं के मुग्ध हृदय प्रेम की गागर छलकी थी। गोपियों ने यमुना के कछारों में प्रेमी कृष्ण का अनुशरण किया था-
वह कटाक्ष चंचल यौवन-मन
वन-वन प्रिय-अनुशरण-प्रयास
वह निष्पलक सहज चितवन पर
प्रिय का अचल अटल विश्वास।1
‘यमुना के प्रति’ में स्मृति प्रेम के जो मनोहर चित्र निराला ने खींचे हैं वह भाव और कला दोनों ही दृष्टियों से उŸाम है। इस स्मृति चित्रण की अपनी मादकता है, अपनी मधुरता है जो अन्य सबसे अलग हटकर है। इनमें प्रेम की मधुरता के साथ वियोग की मीठी उन्मुक्त कसक भी है। अपनी प्रियतमा के साथ बिताये क्षणों के ‘स्मृति चुम्बन’ से वह अपने जीवन में छायी रिक्तता भरना चाहते हैं-
इंगित कर मुझको बुलाती थी बार-बार
प्यार ही प्यार का चुम्बन संसार था।
यौवन वन की वह मेरी शकुंतला-
शारदीय चन्द्रिका दग्ध मरु के लिये-
सीमा में दृष्टि की असीम रस-रूप-राशि
चुम्बन से जीवन का प्याला भर दे गई।
रिक्त जब होगा भर देगी तत्काल स्मृति
काल के बंधन में वह जीवन यह जब तक है।
निराला की गीतिका तो स्मृति प्रणय को ही समर्पित है। इसमें निराला ने अपने स्मृति प्रणय के अनेक सुन्दर गीत सृजित किये हैं। इसमें प्रिया के प्रेम की स्मृति में लीन कवि ने कहीं नख-शिख सौन्दर्य का वर्णन किया है कहीं परम्परागत उपमान ग्रहण कर स्वच्छन्द प्रेम की भावाभिव्यंजना की है। ‘सोचती अपलक आप खड़ी’, मेरे प्राणों में आओ, याद रखना इतनी सी बात, कहाँ उन नयनों की मुस्कान, नयनों में हेर प्रिय, कल्पना के कानन की रानी, स्पर्श से लाज लगी, दृगों की कलियाँ नवल खुलीं, कौन तुम शुभ्र किरण वसना,2 मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा, सखी री यह डाल वसन वासन्ती लेगी, तुम छोड़ गये द्वार, चाहते हो किसको सुन्दर, चहकते नयनों में प्राण, रंग गई पग-पग धन्य धरा, सकल गुणों की खान, प्राण धन को स्मरण करके, मार दी तूने पिचकारी, नयनों का नयनों से बंधन, लिखती सब कहते अपने सुख स्वप्न से खिली, तुम्हीं गाती हो, तुम्हें ही चाहा, भावना रंग दी तुमने, आदि गीतों में सौन्दर्य, प्रेम के विविध रूपों का वर्णन कवि ने किया है।
निराला का स्मृति-प्रेम आगे के गीत-संग्रहों में विरह की व्यथा से भरा हुआ मिलता है। ‘स्नेह निर्झर बह गया है’ ‘रहे चुपचाप मारकर हाथ पर’ आदि कुछ गीतों को छोड़कर शेष में कवि के विरह का पर्यावसान लौकिक प्रेम से अलौकिकता की ओर मुड़ जाता है।
कवि निराला की यह स्मृति प्रेम व्यंजना अपने में निराली भावाभिव्यक्ति है। इस स्मृति में ही प्रिया का मधुर प्रेम, आकर्षण, अनुनय, मौन मिलन, तन्मयता, तृप्ति, विरह के क्रम में लौकिकता से अलौकिकता के प्रेम में मग्न हो जाना निराला की अपनी विशेषता है।
(7) करुण भावना
निराला के गीतिकाव्य में करुणा या वेदना की अभिव्यक्ति प्रभूत परिणाम में हुई है। निराला जी की करुणा का प्रसार व्यक्तिगत निराशा, दुःख समाजधर्म तथा रहस्य दर्शन आदि तक है। छायावादी कवियों के काव्य में वेदना, पीड़ा, दुख, करुणा आदि की अभिव्यक्ति व्यापक धरातल पर हुई है। इसीलिये छायावादी-काव्य को करुणा का पर्याय समझ लेना साधारण सी बात है। इस दुख के दो रूप हैं- एक जीवन की विषमता की अनुभूति से उत्पन्न करुण भाव, दूसरा जीवन के स्थूल धरातल पर व्यक्तिगत असफलताओं से उत्पन्न विषाद।
छायावादी कवियों ने दुख को बहुत सरस बना दिया है क्योंकि दुख उनके अस्तित्व को चुनौती नहीं देता था, उन्हें तोड़ता नहीं था बस थोड़ा और मृदु, थोड़ा और कोमल, थोड़ा और भाव-प्रवण बना देता था।2
करुणा मानव के हृदय से निकला भाव है इसीलिये काव्य में प्राचीन समय से ही करुणा को विशेष महŸव मिला है। काव्य की उत्पत्ति ही करुणा से हुई है। यहाँ भी करुणा ही काव्य की प्रेरणा शक्ति है। करुणा के द्वारा कवि अपने पाठक या श्रोता के हृदय में सहानुभूति उत्पन्न करने में समर्थ होता है क्योंकि- “करुण भावना व्यक्तिगत सुख-दुख के साथ मिल जाती है।
महाकवि के गीतों में करुणा की मार्मिक अभिव्यक्ति आरम्भ से ही आ गयी है। परिमल से वह निकलने वाली करुण सलिला, सांध्य काकली के अन्तिम गीत तक पहुँचकर मार्मिक व्यथा में परिणित हो गई है।
परिमल की ‘अधिवास’ और ‘खेवा’ से ही यह करुण स्वर सुनाई देने लगता है-
कहाँ-
मेरा अधिवास कहाँ ?
क्या कहा ? -रुकती है गति जहाँ ?
भला इस ‘गति का शेष’
सम्भव है क्या,
करुण स्वर का जब तक मुझमें रहता है आवेश।4
’ ’ ’ ’ ’ ’ ’
डोलती नाव, प्रखर है धार
सँभालो जीवन खेवनहार।
दोनों ही गीतों में करुणा का विकल स्वर गूँज रहा है। निराला जी के व्यक्तिगत जीवन में घटने वाली घटनाओं ने जैसे बचपन में माँ की ममता की छाँव से वंचित होना, स्नेहा पत्नी का युवावस्था में विछोह, पुत्री की असमय मृत्यु, अन्य सम्बंधियों ,साथियों का विछोह आदि ऐसी व्यथा हैं जिसमें निराला का तन-मन सब टूट कर रह गया दूसरे जीवन का अर्थाभाव, अपने आस-पास रहने वाला पीड़ित, शोषित मानव समाज आदि से उनके मन में वेदना की कसक कहीं गहरे तक समा गई। यही वेदना उनके गीतों में करुणा की धारा बन बह चली है- “निराला की वेदना उस योद्धा की वेदना है जो विकराल प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझा है, उस कलाकार की वेदना है जो अपने काव्य-कानन के सुमनों के मृदु गंध पराग से इस दोष-विष जर्जर संसार को सुरभित, प्रेम हरित, स्वच्छन्द करने का संकल्प लेकर ही आया था, उस भक्त की वेदना है जो आजीवन स्वधर्माचरण करता रहा है और अब सब कुछ प्रभु के पाद पद्मों में समर्पित कर मुक्त हो जाना चाहता है।
निराला जी की करुणा में समाहित है उनके व्यक्तिगत जीवन के दुख और निराशा उनके जीवन में छायी करुणा की टीस उनके कई गीतों में विद्यमान है। विफल वासना, स्वप्न स्मृति, शेष, वनबेला, सरोज स्मृति, हताश, तथा गीतिका, अर्चना और आराधना के कई गीतों में उनकी यह करुण-सलिला प्रवहमान है। कवि जीवन को अपना कर उन्हें समाज से जो अपमान, उपहास और लांछना मिली वह उनके लिये असहय हो गई थी। तभी वे-
कवि तुम, एक तुम्हीं
बार-बार, झेलते सहस्रों बार
निर्मम संसार के,
दूसरों के अर्थ ही लेते दान,
महाप्राण ! जीवों में देते हो
जीवन ही जीवन जोड़,
मोड़ निज सुख से मुख।
’ ’ ’ ’
हो गया व्यर्थ जीवन,
मैं गया रण में हार,
सोचा न कभी-
अपने भविष्य की रचना पर चल रहे सभी।
कवि जीवन की इस करुणा का विस्फोट उस समय तीव्रतम रूप में होता है जब अर्थाभाव से त्रस्त पिता की प्रिय पुत्री सरोज असमय ही काल कवलित हो जाती है। अपनी विपन्नावस्था से निराश कवि का मन चीत्कार कर उठता है-
धन्ये मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका !
जाना तो अर्थागमोपाय
पर रहा सदा संकुचित-काय
लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
कवि जीवन का अर्थाभाव अखण्ड प्रवृत्ति वाले निराला जी समाज के पीड़ित, शोषित मानव की करुणा की ओर मुड़ जाते हैं। इस मानवतावादी कवि का अधिकाधिक सम्पर्क जन-जीवन से रहा इसीलिये पर-पीड़ा से उत्पन्न करुणा उन्हें बराबर सालती है। और फिर कवि जीवन का उद्देश्य ही जन सामान्य की वाणी होना चाहिये। उसे दूसरों की सहायता के लिये सदैव तत्पर रहना चाहिये जैसे कि झरना के जीवन का उसके बहने का एक उद्देश्य है, सूखते हुये निर्जीवन को नूतनता से भर देना-
गर्जित-जीवन झरना
उद्देश्य पार पथ करना।
ऊँचा रे -नीचे आता
जीवन भर-भर दे जाता
’ ’ ’ ’
सूखते हुये, निर्जीवन
होने बहते तक, मन,
बढ़ना मरकर बनना घन,
धारा नूतन भरना।1
इस झरने की तरह ही निराला का जीवन भी जन-सामान्य के लिये है। व्यक्तिगत सुख-दुखों का अतिक्रमण कर उनकी करुणा के घन उन पर बरसे हैं जिन्हें क्रूर समाज ने शोषित और पीड़ित कर रखा है।
निराला ने समाज में फैले हुये दारिद्रय, शोषण और प्रताड़ित होने वाले मानव के प्रति गहरी संवेदना प्रकट की है। दुख और पीड़ा का शिकार मानवता ही उनका काव्य-लक्ष्य रही है। विधवा, भिक्षुक, दीन, वह तोड़ती पत्थर, रास्ते के फूल से आदि गीतों में उनकी मानवीय करुणा विद्यमान है।
अनामिका की ‘दान’, ‘सेवा प्रारम्भ’ गीत निराला की मानवीय करुण भावना के सर्वश्रेष्ठ गीत हैं। इन गीतों में कवि की करुणा का उदात्त रूप हमें देखने को मिलता है। हरी-भरी प्रकृति ने सृष्टि की श्रेष्ठ रचना मानव को अपना सम्पूर्ण वैभव दिया है उसी वैभव और सौंदर्य में मानव का एक वर्ग ऐसा भी है जो दीन-हीन कंकाल प्राय है-
एक ओर पथ के कृशकाय
कंकाल शेष नर मृत्यु-प्राय
बैठा सशरीर दैन्य दुर्बल,
भिक्षा को उठी दृष्टि निश्चल,
अति क्षीण कंठ है तीव्र श्वास,
जीता ज्यों जीवन से उदास।
स्वामी अखण्डानंद जी महाराज जिनमें ज्ञान-योग-भक्ति, कर्म और धर्म की विविध धारायें प्रभावित हैं जब बंगाल के अकालग्रस्त समाज का भ्रमण करने जाते हैं उस समय के मानव समाज में भूख का जो हाहाकार मचा था उसका वर्णन निराला जी सहज मानवीय करुणा से द्रवीभूत होकर किया है-
देखा है दृश्य और ही बदले-
दुबले-दुबले जितने लोग,
लगा देश-भर को ज्यों रोग,
दौड़ते हुये दिन में स्यार
बस्ती में बैठे हुये भी-महाकार,
आती बदबू रह- रह
हवा बह रही व्याकुल कह-कह,
कहीं नहीं पहले ही चहल-पहल।
भूख से तड़फ-तड़फ कर मरते हुये मनुष्य का फिर समाज के ठेकेदार शोषण से नहीं चूकते। बालिका का घड़ा फूटना और माँ की मार के डर के साथ प्रसंग आगे बढ़ता है। आगे के प्रसंग में करुणा की ऐसी कसक है जिसका दूसरा उदाहरण अन्यत्र असंभव है। भूख से व्याकुल कुछ लड़के इस उद्देश्य से स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ते हैं कि यहाँ कुछ न कुछ खाने को अवश्य मिलेगा-
इसी समय आये वे लड़के,
स्वामी जी के पैरों आ पड़े।
पेट दिखा, मुँह को ले हाथ,
करुणा की चितवन से, साथ
बोले -खाने को दो
राजों के महाराज तुम हो।
आजीवन संघर्ष करके दुखों को झेलने वाले कवि अंत में करुणाद्र हो, प्रभु को पुकार उठते हैं। हृदय में स्थित वेदना को हँसकर झेल लेना चाहते हैं-
प्रातः तव द्वार पर
आया जननी, नैश अन्ध पथ पार कर।
लगे जो उपल पद, हुये उत्पल ज्ञात,
कण्टक चुभे, जागरण बने अवदात।
हृदय की व्यथा से जब कवि वेदना से व्यथित होता है तब अपने प्रभु से ही करुणा की किरणों से क्षुब्ध हृदय में प्रकाश भर देने की प्रार्थना करते हैं। इस भक्ति-चिन्तन में भी हृदय की करुणा है कि कवि को बार-बार व्यथित कर देती है। कवि अपनी वेदना को रोकने के लिये कहीं बस गीत ही गाना चाहते हैं। कहीं पर कवि उस स्थान को ही छोड़ देना चाहते हैं जिसे देखते ही कवि हृदय वेदना से टीसने लगता है-
बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु !
पूछेगा सारा गाँव बन्धु!
कवि पुनः इस व्यथित वेदना से अपना उद्धार करने की प्रार्थना करुणामपि से करने लगते हैं-
वेदना बनी,
मेरी अपनी।
’ ’
पार करो यह सागर
दीन के लिये दुस्तर
करुणामपि, गहकर कर
ज्योतिर्मनी।
हृदय में व्याप्त करुणा के लिये कवि आरम्भ से ‘मैं शैली’ अपना लेते हैं। यह शैली उनके प्रत्येक गीत संग्रहों में कहीं न कहीं दिखाई दे ही जाती है। निराला जी का लिखा हुआ अन्तिम गीत भी उनके हृदय की करुणा से व्याप्त हैै- जिसका वह “ पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है।”
इस परिवर्तनशील संसार में मनुष्य को न जाने कितने दुखोें को सहना पड़ता है जिनकी व्यथा से मानव हृदय का करुणार्द्र होना स्वाभाविक ही है। तब फिर निराला जी तो एक कवि थे उन्होंने व्यक्तिगत जीवन के अतिरिक्त देश, धर्म, समाज तथा इतिहास के दर्पण में शोषित, पीड़ित मानव की जो व्यथा देखी उसे उन्होंने जैसे स्वयं अनुभव किया और यह करुण भावना उनके सम्पूर्ण गीतिकाव्य में प्रारम्भ से अन्त तक विद्यमान रही है। यह करुणा सामान्य मानव की करुणा से ऊपर उठ कर अध्यात्म और भक्ति की करुणा में अवश्य बदल गई है। इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं कि करुण-भावना से युक्त निराला जी के गीत उनके हृदय की सत्य भावधारा है।
-डा० साधना शुक्ला
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