19 August 2018

निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना

निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना 
                              -डा० साधना शुक्ला
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5- सौन्दर्य चेतना
 निराला के गीतिकाव्य में सौंदर्य-चेतना का अत्यन्त भव्य व समृद्ध रूप देखने को मिलता है। निराला के गीतों में मानवीय प्राकृतिक तथा भावात्मक सौन्दर्य के अनेक रूप-चित्र मिलते हैं। इन सौन्दर्य गीतों के भाव नूतन, सजीव और संवेदनशील हैं। परिमल, गीतिका और अनामिका के अनेक गीतों में सौन्दर्रू की यह भावना अधिक प्रखरता के साथ दिखाई देती है। “सौन्दर्यानुभूति के कवि निराला की सौन्दर्य-दृष्टि अत्यंत संयमित और पवित्र है।”1
 निराला की सौन्दर्य चेतना की अभिव्यक्ति अत्यन्त महत्वपूर्ण है। निराला नैसर्गिक सौन्दर्य के ईश्वरीय सौन्दर्य, वैभव और विलास के कवि भी हैं। उनके इन्द्रिय-बोध से प्राप्त सौन्दर्य लालसा-सप्ष्ट है-
स्पर्श में अनुभव रोमांच
हर्ष रूप में परिचय
विराट सुख गंध में रस में
रस में मज्जनानन्द
शब्दों में अलंकार।
 रूप रस, गंध और स्पर्ष के चिर सौन्दर्य को स्वीकार करने वाले निराला स्वयं कहते हैं-
  मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
ज्योति स्वरणा के चरणों पर।
 अपने सौन्दर्य बोध के बारे में स्वयं कहते हैं, “चित्रकार जितनी सुन्दर कल्पना कर सकता है, उसका चित्र उतना ही सुन्दर होता है। सौन्दर्य की ही कल्पना ललित कला का मुख्य आधार है।” अपने इन सौन्दर्य-चित्रों को मानवीय सौन्दर्य के साथ प्रकृति के सौन्दर्य से भी अपने गीतों में उन्होंने रंग भरे हैं। निराला के तुलसीदास जो प्राकृतिक सौन्दर्य विचरण करते-करते पत्नी के रूप-सौन्दर्य की ओर आकृष्ट होते हैं। यही सौन्दर्य चेतना तुलसीदास में कवि मन का विकास करती है।
 सौन्दर्य भावना यह क्रिया अपने में अनुपम है। पंत जी कहते हैं कि “निराला की सौन्दर्य-वृत्ति रहस्यात्मक है। उसमें आत्मिक चेतना का ओज तथा प्रकाश है।” निराला के सौन्दर्य चित्र अविभाज्य हैं। इन सौन्दर्य चित्रों से भरी हुई रहस्य भावना ही उनकी सम्पूर्णता है। विजन वन वल्लरी पर स्नेह स्वप्न-मग्न सुहाग भरी ‘जूही की कली’ का सौन्दर्य ऐसा ही अखण्ड सौन्दर्य है। निराला की सौन्दर्य दृष्टि प्राकृतिक सौन्दर्य से रंगी हुई प्रणय के लिये मुक्त आनन्द की अभिव्यंजना करती है। सूक्ष्म उपमान और प्रतीकों के माध्यम से कवि ने अपने इन भाव-चित्रों की सर्जना की है। निराला की ‘प्रेयसी’ तारुण्य की प्रथम तरंग से प्रियतम तरु का तन घेरकर ज्योतिर्मयी बन जाती है-
घेर अंग-अंग को
लहरी तरंग वह प्रथम तारुण्य की
  ’ ’ ’ ’ ’
लिखे नव पुष्प जग प्रथम सुगन्ध के,
प्रथम बसन्त में गुच्छ-गुच्छ,
दृगों में रंग गई प्रणय रश्मि
चूर्ण हो विच्छुरित।
विश्व-ऐश्वर्य को स्फुरित करती रही
बहु रंग भाव भर
शिशिर-ज्यों पत्र पर कनक प्रभात में,
किरण-सम्पात से
दर्शन-समुत्सुक युवाकुल पतंग ज्यों
चिरते मंजु मुख
गुंज-मृत्यु अलि पुंज।
 इस सौन्दर्य वर्णन मे कवि की भावना ऐन्द्रिकता की ओर बढ़ने लगती है। इन सौन्दर्य चित्रों में प्रणय की पावनता समाप्त होकर कामुकता की सीमा छूने लगती है-
नायक ने चूमे कपोल
डोल उठी वल्लरी की लड़ी जैसे हिंडोल !
  ’ ’ ’ ’ ’ ’
कौन कहे ?
निर्दय उस नायक ने
निपट निठुराई की
झोंकों से झाड़ियों से
सुन्दर सुकुमार देह सारी झकझोर डाली,
मसल दिये गोरे कपोल गोल।
 इसी तरह स्फटिक शिला में सद्यः स्नाता का सौंन्दर्य, खजोहरा में बुआ का तालाब स्नान, वन बेला में भीष्म ताप, प्रस्वेद, कम्ब और सुख-सम्य की कल्पना, तथा पंचवटी प्रसंग में सूर्पनखा का यौवन मदमस्त सौंदर्य चित्र, ऐसे ऐन्द्रिकता और मांसलता से परिपूर्ण हैं।
 इन कतिपय गीतों को छोड़कर शेष सौन्दर्य गीतों में प्रणय की पावनता और मार्मिकता विद्यमान है। संध्या सुन्दरी, कविता, नर्गिस, शेफालिका, जैसे गीतों में मानवीकरण द्वारा ऐसे भव्य और सुन्दर सौन्दर्य का निरूपण निराला जी ने किया है जो अन्यत्र कहीं भी दुर्लभ है। इनके अतिरिक्त ‘पहचाना’, उनकी स्मृति, शृंगारमयी, बहू, आदि गीतों में भी सुन्दर भावना सन्निहित है।
 इसी तरह गीतिका के अधिकांश गीतों में यह दिव्य, मानवीकृत, आलंकारिक सौन्दर्य भावना विद्यमान है।
 प्रिय के साथ रात्रि जागरण से अलसाये नेत्रों में प्रिय के अरुण अनुराग की जो झलक है, ऐसा सुन्दर सौन्दर्यांकन अन्यत्र मिलना दुर्लभ है। सौन्दर्य गीत में वासना की मुक्ति के साथ उदात्त सौन्दर्य की भावना विद्यमान है-
  प्रिय यामिनी जागी,
  अलस पंकज-दृग-अरुण-मुख तरुण अनुरागी
  खुले केश अशेष शोभा भर रहे
  पृष्ठ ग्रीवा-बाहु-उर पर तर रहे,
  बादलों में घिर अपर दिनकर रहे,
  ज्योति की तन्वीतड़ित-द्युति ने क्षमा माँगी।
  हेर उर पर फेर मुख के बाल,
  लख चतुर्दिक चली मंद मराल,
  गेह में प्रिय-स्नेह की जयमाल,
  वासना की मुक्ति, मुक्ता त्याग में तागी।1
 गीतिका के ही एक और गीत में कवि ने ऐसे दिव्य सौन्दर्य का चित्र खींचा है कि उस नायिका के कोमल शरीर से सुगन्ध आती है। ऐसी दिव्य -सौन्दर्य के हृदय में प्रणय का सागर लहराता रहता है-
  कौन तुम शुभ्र किरण वसना ?
  सीखा केवल हँसना- केवल हँसना
  शुभ्र किरण वसना-
  मंद मलय भर अंग- गंध मृदु
  बादल अलकावलि कुंचित-ऋजु,
  तारकहार, चन्द्र मुख, मधु ऋतु
  सुकृत पुंज-आशना।
 निराला ने सौन्दर्य को दिव्य चेतना का प्रतीक माना है क्योंकि- “सौन्दर्य वर्णन में निराला वासना से मानसिकता और मानसिकता से दिव्यता की ओर बढ़ गये हैं।”
 इसी तरह ‘दृगों की कलियाँ’ नवल खुली, स्पर्श से लाज लगी, आदि गीतों में भी ऐसे ही दिव्य सौन्दर्य का वर्णन है। इसी तरह अर्चना में केशर की कलि की पिचकारी प्रिय के हाथ लगाये जागी, किरणों की परियाँ मुस्कायीं, चली निशि में तुम आईं प्रात, तथा घन आये घनश्याम न आये आदि गीत भी सौन्दर्य भावना से अनुप्राणित हैं। इनके बाद के गीत संग्रहों में कवि की चिंतन वृत्ति सामाजिक और आध्यात्मिक हो जाने के कारण इन सौन्दर्य गीतों का सृजन केवल प्रकृति के सौन्दर्य चित्रण के रूप में ही हो सका है। विस्तृत रूप में वह भी नहीं। जैसे- पारस, मदन हिलोर, नदेतन, प्राण तुम पावन  आदि।
 निराला जी की सौन्दर्यानुरागिनी शृंगारमयी सौन्दर्य भावना में प्रेम की अभिव्यक्ति प्रकृति को साथ लेकर सांकेतिक, प्रतीक तथा मानवीकृत रूप में हुयी है जो सहज ही हृदय को आकर्षित करती है।


6- प्रेम व्यंजना


 प्रेम मानव हृदय का शाश्वत भाव है। प्रेम सृष्टि का मूलाधार है। क्योंकि सृष्टि की रचना का कारण यही प्रेम है, प्रेम उस मधुरतम सौरभ से पूरित सुमन की तरह है जिसे पा लेने के बाद संसार में और कुछ पाने की इच्छा ही नहीं रहती हैं  ऐसे पावन और शाश्वत भाव के बहुविधि भाव-चित्र निराला जी के गीत काव्य में मिलते हैं।
 वैसे भी छायावादी काव्य में प्रेम की प्रधानता होने पर संपूर्ण छायावादी काव्य को प्रेम काव्य समझा जाने लगा है। प्रेम के विश्व व्यापी प्रभाव से सभी छायावादी कवि प्रभावित थे क्योंकि “छायावाद का कवि प्रेम को शरीर की भूख न समझ कर एक रहस्यमयी चेतना समझता है। जिस कविता ने नवीन सौन्दर्य चेतना जगा कर एक वृहद् समाज की अभिरुचि का परिस्कार किया........उस कविता का गौरव अक्षय है।”
 निराला में प्रेम और सौन्दर्य की भावना अधिक दिव्य तथा उदत्त रूप में दिखाई देती है।
 निराला प्रेम को शाश्वत अैार अनादि तत्त्व मानते हैं, वे यह भी मानते हैं कि प्रेम सुधा का पान हर साधारण मनुष्य नहीं कर सकता बल्कि कोई दिव्य देह-  धारी ही इस पयोधि में कूद कर प्रेमामृत पान करते हैं-
  प्रेम का पयोधि तो उमड़ता है
  सदा ही निःसीम भू पर।
  प्रेम की महोर्मि-माला तोड़ देती क्षुद्र ठाट,
  जिसमें संसारियों के सारे क्षुद्र मनोवेश
  तृण-सम बह जाते हैं।
  ’ ’ ’ ’ ’
  दिव्य देह धारी ही कूदते हैं इसमें प्रिय,
  पाते हैं प्रेमामृत
  पीकर अमर होते हैं।1
 प्रेम के प्रति ऐसे सुंदर विचारों से निर्मित है निराला के प्रेम गीतों की पीठिका जिसमें भावनागत दुर्बलता कहीं नहीं है, “प्राकृतिक सौन्दर्य से रँगा उनका प्रेम उत्तेजना और स्थूल आकर्षण की नहीं बल्कि उल्लास और आनन्द की अभिव्यंजना करता है।”
 प्रेमाभाव की प्रधानता निराला के गीतिकाव्य में सर्वाधिक है। उनके अधिकतर गीतों में प्रेम की अभिव्यंजना हुई है। निराला की दृष्टि में प्रेम ही वह सुदृढ़ बंधन है जिसमें दो हृदय बँधकर रह जाते हैं-
  बाँध बाहुओं में रूपों ने
  समझा-अब पाया-पाया,
  ’ ’ ’ ’
  समझे दोनों, था न कभी वह
  प्रेम, प्रेम की थी छाया।
  प्रेम सदा ही तुम असूत्र हो
  उर-उर के हीरें के हार,
  गुँथे हुये प्राणियों को भी
  गुँथे न कभी, सदा ही सार।
 प्रेम को असूत्र कह कर निराला जी ने प्रेम की स्वच्छंदता और निर्बन्धता का बोध कराया है।
 निराला का प्रेम उनके गीतों में संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों में प्रिया के स्मृति प्रेम के रूप में ही व्यक्त हुआ है। प्रिया से मिलन में, विरह में तथा प्रिया के सौन्दर्यावलोकन सभी में कवि के प्रेम का अधार स्मृति ही है। प्रियतमा का दर्शन, स्पर्श, चुम्बन, सभी कुछ प्राणधन के स्मरण में ही कवि कर सकते हैं।
 कवि की प्रेयसी ही उनके काव्य की प्रेरणा है- ‘प्रिया से’ नामक गीत में कवि ने यही भाव व्यक्त किया है-
  मेरे इस जीवन की है तू सरस साधना कविता,
  मेरे तरु की है तू कुसुमित प्रिये, कल्पना लतिका
  मधुमय मेरे जीवन की प्रिय है तू कमल गामिनी,
  मेरे कुंज कुटीर द्वार की कोमल चरण गामिनी,
  ’ ’ ’ ’ ’ ’
  तेरे सहज रूप से रँगकर
  झरे गान के मेरे निर्झर,
  भरे अखिल-सर,
  स्वर से सिक्त हुआ संसार।
 निराला जी की प्रेयसी में प्राकृतिक सौन्दर्य से पूरित वातावरण में प्रिय मिलन की मधुर स्मृति का जो भाव पूर्ण चित्र है वह मनोहारी है-
  याद है उषःकाल-
  प्रथम-किरण-कम्प प्राची के दृगों में,
  प्रथम-पुलक, फुल्ल-चुम्बित वसन्त के,
  मंजरित लतापर
  प्रथम विहग बालिकाओं का मुखर स्वर
  प्रथम-मिलन-गान
  ’ ’ ’
  रूप के द्वार पर
  मोह की माधुरी
  कितने ही बार पी मूर्च्छित हुये हो, प्रिय,
  जागती में रही,
  गह बाँह, बाँह में भरकर सँभाला तुम्हें।
 प्रिया के सौन्दर्य उसके प्रेम की स्मृति में निमग्न कवि कह उठते हैं-
  मृदु-सुगन्ध-सी कोमल दल फूलों की
  शशि-किरणों की-सी वह प्यारी मुस्कान,
  स्वच्छन्द गगन सी मुक्त वायु सी चंचल
  खोयी स्मृति की फिर आई सी पहचान।
 निराला के राम भी प्रिया से हुये साक्षात्कार अनुरोध और उसके गरिमामयी सौन्दर्य की मधुर स्मृति में निमग्न हो जाते हैं। उन्हें पृथ्वी तनया, कुमारिका की वह दिव्य छवि याद हो आती है जिसे कभी उन्होंने निष्पलक देखा था। निराला को बार-बार प्रेम के स्मरण क्रम यमुना का वह तट याद आता है जहाँ कभी गोपिकाओं के मुग्ध हृदय प्रेम की गागर छलकी थी। गोपियों ने यमुना के कछारों में प्रेमी कृष्ण का अनुशरण किया था-
  वह कटाक्ष चंचल यौवन-मन
  वन-वन प्रिय-अनुशरण-प्रयास
  वह निष्पलक सहज चितवन पर
  प्रिय का अचल अटल विश्वास।1
 ‘यमुना के प्रति’ में स्मृति प्रेम के जो मनोहर चित्र निराला ने खींचे हैं वह भाव और कला दोनों ही दृष्टियों से उŸाम है। इस स्मृति चित्रण की अपनी मादकता है, अपनी मधुरता है जो अन्य सबसे अलग हटकर है। इनमें प्रेम की मधुरता के साथ वियोग की मीठी उन्मुक्त कसक भी है। अपनी प्रियतमा के साथ बिताये क्षणों के ‘स्मृति चुम्बन’ से वह अपने जीवन में छायी रिक्तता भरना चाहते हैं-
  इंगित कर मुझको बुलाती थी बार-बार
  प्यार ही प्यार का चुम्बन संसार था।
  यौवन वन की वह मेरी शकुंतला-
  शारदीय चन्द्रिका दग्ध मरु के लिये-
  सीमा में दृष्टि की असीम रस-रूप-राशि
  चुम्बन से जीवन का प्याला भर दे गई।
  रिक्त जब होगा भर देगी तत्काल स्मृति
  काल के बंधन में वह जीवन यह जब तक है।
 निराला की गीतिका तो स्मृति प्रणय को ही समर्पित है। इसमें निराला ने अपने स्मृति प्रणय के अनेक सुन्दर गीत सृजित किये हैं। इसमें प्रिया के प्रेम की स्मृति में लीन कवि ने कहीं नख-शिख सौन्दर्य का वर्णन किया है कहीं परम्परागत उपमान ग्रहण कर स्वच्छन्द प्रेम की भावाभिव्यंजना की है। ‘सोचती अपलक आप खड़ी’, मेरे प्राणों में आओ, याद रखना इतनी सी बात, कहाँ उन नयनों की मुस्कान, नयनों में हेर प्रिय, कल्पना के कानन की रानी, स्पर्श से लाज लगी, दृगों की कलियाँ नवल खुलीं, कौन तुम शुभ्र किरण वसना,2 मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा, सखी री यह डाल वसन वासन्ती लेगी, तुम छोड़ गये द्वार, चाहते हो किसको सुन्दर, चहकते नयनों में प्राण, रंग गई पग-पग धन्य धरा, सकल गुणों की खान, प्राण धन को स्मरण करके, मार दी तूने पिचकारी, नयनों का नयनों से बंधन, लिखती सब कहते  अपने  सुख स्वप्न से खिली, तुम्हीं गाती हो, तुम्हें ही चाहा, भावना रंग दी तुमने, आदि गीतों में सौन्दर्य, प्रेम के विविध रूपों का वर्णन कवि ने किया है।
 निराला का स्मृति-प्रेम आगे के गीत-संग्रहों में विरह की व्यथा से भरा हुआ मिलता है। ‘स्नेह निर्झर बह गया है’ ‘रहे चुपचाप मारकर हाथ पर’ आदि कुछ गीतों को छोड़कर शेष में कवि के विरह का पर्यावसान लौकिक प्रेम से अलौकिकता की ओर मुड़ जाता है।
 कवि निराला की यह स्मृति प्रेम व्यंजना अपने में निराली भावाभिव्यक्ति है। इस स्मृति में ही प्रिया का मधुर प्रेम, आकर्षण, अनुनय, मौन मिलन, तन्मयता, तृप्ति, विरह के क्रम में लौकिकता से अलौकिकता के प्रेम में मग्न हो जाना निराला की अपनी विशेषता है।
(7) करुण भावना


 निराला के गीतिकाव्य में करुणा या वेदना की अभिव्यक्ति प्रभूत परिणाम में हुई है। निराला जी की करुणा का प्रसार व्यक्तिगत निराशा, दुःख समाजधर्म तथा रहस्य दर्शन आदि तक है। छायावादी कवियों के काव्य में वेदना, पीड़ा, दुख, करुणा आदि की अभिव्यक्ति व्यापक धरातल पर हुई है। इसीलिये छायावादी-काव्य को करुणा का पर्याय समझ लेना साधारण सी बात है। इस दुख के दो रूप हैं- एक जीवन की विषमता की अनुभूति से उत्पन्न करुण भाव, दूसरा जीवन के स्थूल धरातल पर व्यक्तिगत असफलताओं से उत्पन्न विषाद।
 छायावादी कवियों ने दुख को बहुत सरस बना दिया है क्योंकि दुख उनके अस्तित्व को चुनौती नहीं देता था, उन्हें तोड़ता नहीं था बस थोड़ा और मृदु, थोड़ा और कोमल, थोड़ा और भाव-प्रवण बना देता था।2
 करुणा मानव के हृदय से निकला भाव है इसीलिये काव्य में प्राचीन समय से ही करुणा को विशेष महŸव मिला है। काव्य की उत्पत्ति ही करुणा से हुई है। यहाँ भी करुणा ही काव्य की प्रेरणा शक्ति है। करुणा के द्वारा कवि अपने पाठक या श्रोता के हृदय में सहानुभूति उत्पन्न करने में समर्थ होता है क्योंकि- “करुण भावना व्यक्तिगत सुख-दुख के साथ मिल जाती है।
 महाकवि के गीतों में करुणा की मार्मिक अभिव्यक्ति आरम्भ से ही आ गयी है। परिमल से वह निकलने वाली करुण सलिला, सांध्य काकली के अन्तिम गीत तक पहुँचकर मार्मिक व्यथा में परिणित हो गई है।
 परिमल की ‘अधिवास’ और ‘खेवा’ से ही यह करुण स्वर सुनाई देने लगता है-
  कहाँ-
  मेरा अधिवास कहाँ ?
  क्या कहा ? -रुकती है गति जहाँ ?
  भला इस ‘गति का शेष’
  सम्भव है क्या,
  करुण स्वर का जब तक मुझमें रहता है आवेश।4
  ’ ’ ’ ’ ’ ’ ’
  डोलती नाव, प्रखर है धार
  सँभालो जीवन खेवनहार।
 दोनों ही गीतों में करुणा का विकल स्वर गूँज रहा है। निराला जी के व्यक्तिगत जीवन में घटने वाली घटनाओं ने जैसे बचपन में माँ की ममता की छाँव से वंचित होना, स्नेहा पत्नी का युवावस्था में विछोह, पुत्री की असमय मृत्यु, अन्य सम्बंधियों ,साथियों का विछोह आदि ऐसी व्यथा हैं जिसमें निराला का तन-मन सब टूट कर रह गया दूसरे जीवन का अर्थाभाव, अपने आस-पास रहने वाला पीड़ित, शोषित मानव समाज आदि से उनके मन में वेदना की कसक कहीं गहरे तक समा गई। यही वेदना उनके गीतों में करुणा की धारा बन बह चली है- “निराला की वेदना उस योद्धा की वेदना है जो विकराल प्रतिकूल परिस्थितियों से जूझा है, उस कलाकार की वेदना है जो अपने काव्य-कानन के सुमनों के मृदु गंध पराग से इस दोष-विष जर्जर संसार को सुरभित, प्रेम हरित, स्वच्छन्द करने का संकल्प लेकर ही आया था, उस भक्त की वेदना है जो आजीवन स्वधर्माचरण करता रहा है और अब सब कुछ प्रभु के पाद पद्मों में समर्पित कर मुक्त हो जाना चाहता है।
 निराला जी की करुणा में समाहित है उनके व्यक्तिगत जीवन के दुख और निराशा उनके जीवन में छायी करुणा की टीस उनके कई गीतों में विद्यमान है। विफल वासना, स्वप्न स्मृति, शेष, वनबेला, सरोज स्मृति, हताश, तथा गीतिका, अर्चना और आराधना के कई गीतों में उनकी यह करुण-सलिला प्रवहमान है। कवि जीवन को अपना कर उन्हें समाज से जो अपमान, उपहास और लांछना मिली वह उनके लिये असहय हो गई थी। तभी वे-
  कवि तुम, एक तुम्हीं
  बार-बार, झेलते सहस्रों बार
  निर्मम संसार के,
  दूसरों के अर्थ ही लेते दान,
  महाप्राण ! जीवों में देते हो
  जीवन ही जीवन जोड़,
  मोड़ निज सुख से मुख।
  ’ ’ ’ ’
  हो गया व्यर्थ जीवन,
  मैं गया रण में हार,
  सोचा न कभी-
  अपने भविष्य की रचना पर चल रहे सभी।
 कवि जीवन की इस करुणा का विस्फोट उस समय तीव्रतम रूप में होता है जब अर्थाभाव से त्रस्त पिता की प्रिय पुत्री सरोज असमय ही काल कवलित हो जाती है। अपनी विपन्नावस्था से निराश कवि का मन चीत्कार कर उठता है-
  धन्ये मैं पिता निरर्थक था,
  कुछ भी तेरे हित न कर सका !
  जाना तो अर्थागमोपाय
  पर रहा सदा संकुचित-काय
  लख कर अनर्थ आर्थिक पथ पर
  हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
 कवि जीवन का अर्थाभाव अखण्ड प्रवृत्ति वाले निराला जी समाज के पीड़ित, शोषित मानव की करुणा की ओर मुड़ जाते हैं। इस मानवतावादी कवि का अधिकाधिक सम्पर्क जन-जीवन से रहा इसीलिये पर-पीड़ा से उत्पन्न करुणा उन्हें बराबर सालती है। और फिर कवि जीवन का उद्देश्य ही जन सामान्य की वाणी होना चाहिये। उसे दूसरों की सहायता के लिये सदैव तत्पर रहना चाहिये जैसे कि झरना के जीवन का उसके बहने का एक उद्देश्य है, सूखते हुये निर्जीवन को नूतनता से भर देना-
  गर्जित-जीवन झरना
  उद्देश्य पार पथ करना।
  ऊँचा रे -नीचे आता
  जीवन भर-भर दे जाता
  ’ ’ ’ ’
  सूखते हुये, निर्जीवन
  होने  बहते तक, मन,
  बढ़ना मरकर बनना घन,
  धारा नूतन भरना।1
 इस झरने की तरह ही निराला का जीवन भी जन-सामान्य  के लिये है। व्यक्तिगत सुख-दुखों का अतिक्रमण कर उनकी करुणा के घन उन पर बरसे हैं जिन्हें क्रूर समाज ने शोषित और पीड़ित कर रखा है।
 निराला ने समाज में फैले हुये दारिद्रय, शोषण और प्रताड़ित होने वाले मानव के प्रति गहरी संवेदना प्रकट की है। दुख और पीड़ा का शिकार मानवता ही उनका काव्य-लक्ष्य रही है। विधवा, भिक्षुक, दीन, वह तोड़ती पत्थर, रास्ते के फूल से आदि गीतों में उनकी मानवीय करुणा विद्यमान है।
 अनामिका की ‘दान’, ‘सेवा प्रारम्भ’ गीत निराला की मानवीय करुण भावना के सर्वश्रेष्ठ गीत हैं। इन गीतों में कवि की करुणा का उदात्त रूप हमें देखने को मिलता है। हरी-भरी प्रकृति ने सृष्टि की श्रेष्ठ रचना मानव को अपना सम्पूर्ण वैभव दिया है उसी वैभव और सौंदर्य में मानव का एक वर्ग ऐसा भी है जो दीन-हीन कंकाल प्राय है-
  एक ओर पथ के कृशकाय
  कंकाल शेष नर मृत्यु-प्राय
  बैठा सशरीर दैन्य दुर्बल,
  भिक्षा को उठी दृष्टि निश्चल,
  अति क्षीण कंठ है तीव्र श्वास,
  जीता ज्यों जीवन से उदास।
 स्वामी अखण्डानंद जी महाराज जिनमें ज्ञान-योग-भक्ति, कर्म और धर्म की विविध धारायें प्रभावित हैं जब बंगाल के अकालग्रस्त समाज का भ्रमण करने जाते हैं उस समय के मानव समाज में भूख का जो हाहाकार मचा था उसका वर्णन निराला जी सहज मानवीय करुणा से द्रवीभूत होकर किया है-
  देखा है दृश्य और ही बदले-
  दुबले-दुबले जितने लोग,
  लगा देश-भर को ज्यों रोग,
  दौड़ते हुये दिन में स्यार
  बस्ती में बैठे हुये भी-महाकार,
  आती बदबू रह- रह
  हवा बह रही व्याकुल कह-कह,
  कहीं नहीं पहले ही चहल-पहल।
 भूख से तड़फ-तड़फ कर मरते हुये मनुष्य का फिर समाज के ठेकेदार शोषण से नहीं चूकते। बालिका का घड़ा फूटना और माँ की मार के डर के साथ प्रसंग आगे बढ़ता है। आगे के प्रसंग में करुणा की ऐसी कसक है जिसका दूसरा उदाहरण अन्यत्र असंभव है। भूख से व्याकुल कुछ लड़के इस उद्देश्य से स्वामी जी के चरणों में गिर पड़ते हैं कि यहाँ कुछ न कुछ खाने को अवश्य मिलेगा-
  इसी समय आये वे लड़के,
  स्वामी जी के पैरों आ पड़े।
  पेट दिखा, मुँह को ले हाथ,
  करुणा की चितवन से, साथ
  बोले -खाने को दो
  राजों के महाराज तुम हो।
 आजीवन संघर्ष करके दुखों को झेलने वाले कवि अंत में करुणाद्र हो, प्रभु को पुकार उठते हैं। हृदय में स्थित वेदना को हँसकर झेल लेना चाहते हैं-
  प्रातः तव द्वार पर
  आया जननी, नैश अन्ध पथ पार कर।
  लगे जो उपल पद, हुये उत्पल ज्ञात,
  कण्टक चुभे, जागरण बने अवदात।
 हृदय की व्यथा से जब कवि वेदना से व्यथित होता है तब अपने प्रभु से ही करुणा की किरणों से क्षुब्ध हृदय में प्रकाश भर देने की प्रार्थना करते हैं। इस भक्ति-चिन्तन में भी हृदय की करुणा है कि कवि को बार-बार व्यथित कर देती है। कवि अपनी वेदना को रोकने के लिये कहीं बस गीत ही गाना चाहते हैं। कहीं पर कवि उस स्थान को ही छोड़ देना चाहते हैं जिसे देखते ही कवि हृदय वेदना से टीसने लगता है-
  बाँधो न नाव इस ठाँव बन्धु !
  पूछेगा सारा गाँव बन्धु!
 कवि पुनः इस व्यथित वेदना से अपना उद्धार करने की प्रार्थना करुणामपि से करने लगते हैं-
  वेदना बनी,
  मेरी अपनी।
  ’ ’
  पार करो यह सागर
  दीन के लिये दुस्तर
  करुणामपि, गहकर कर
  ज्योतिर्मनी।
 हृदय में व्याप्त करुणा के लिये कवि आरम्भ से ‘मैं शैली’ अपना लेते हैं। यह शैली उनके प्रत्येक गीत संग्रहों में कहीं न कहीं दिखाई दे ही जाती है। निराला जी का लिखा हुआ अन्तिम गीत भी उनके हृदय की करुणा से व्याप्त हैै- जिसका वह “ पत्रोत्कंठित जीवन का विष बुझा हुआ है।”
 इस परिवर्तनशील संसार में मनुष्य को न जाने कितने दुखोें को सहना पड़ता है जिनकी व्यथा से मानव हृदय का करुणार्द्र होना स्वाभाविक ही है। तब फिर निराला जी तो एक कवि थे उन्होंने व्यक्तिगत जीवन के अतिरिक्त देश, धर्म, समाज तथा इतिहास के दर्पण में शोषित, पीड़ित मानव की जो व्यथा देखी उसे उन्होंने जैसे स्वयं अनुभव किया और यह करुण भावना उनके सम्पूर्ण गीतिकाव्य में प्रारम्भ से  अन्त तक विद्यमान रही है। यह करुणा सामान्य मानव की करुणा से ऊपर उठ कर अध्यात्म और भक्ति की करुणा में अवश्य बदल गई है। इसे हम ऐसे भी कह सकते हैं कि करुण-भावना से युक्त निराला जी के गीत उनके हृदय की सत्य भावधारा है।


-डा० साधना शुक्ला   
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निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना

निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना     

                              -डा० साधना शुक्ला

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जीवन में कदम-कदम पर लगने वाली ठोकरों से कवि मन की निराशा जन्य स्थिति उन्हें भक्त कवि तुलसी की तरह दैन्य-विनय और आत्मनिवेदन की  ओर मोड़ देती है। लेकिन निराला इस आत्मनिवेदन और विनय में अकेले ही नहीं सम्पूर्ण मानवता उनके साथ है क्योंकि भक्त को अपने इष्ट से कुछ प्राप्ति में अपने निहित स्वार्थों को छोड़कर ऊपर उठना अनिवार्य है।

  दलित जन पर करो करुणा

  दीनता पर उतर आये

  प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा।

  ’ ’ ’ ’

  भव -अर्पण की तरुणी तरुणा

  बरसी तव नयनों से करुणा।

  ’ ’ ’ ’

  नर जीवन के स्वार्थ सकल

  बलि हों तेरे चरणों पर माँ

  मेरे श्रम संचित सब फल।

 भक्त हृदय के अनुरूप ही कवि भक्त की अनन्यता में दुखहन्ती जगजननी से प्रसन्न चित्त मृत्यु के वरण की याचना करते हैं। कवि चाहते हैं कि जो भी बंधन भक्ति में बाधक है, मैं उनसे मुक्त हो जाऊँ-

  दे मैं करूँ वरण

  जननि दुखहरण पद-राग रज्जित मरण।

  भीरुता के बँधे पाश सब छिन्न हों,

  मार्ग के रोध विश्वास से भिन्न हों,

  आज्ञा, जननि, दिवस-निशि करूँ अनुशरण।1

 विनम्र भक्त ही अपने प्राप्य को प्राप्त कर सकता है ऐसा कवि का विश्वास है। निराला की इस मातृभक्ति में जननि, माँ जैसे सम्बोधन पर्याप्त हैं। माँ के प्रति असीम श्रृद्धा से प्राणों को सार्थक करने की बात अघिक हृदयग्राही है।

  सार्थक करो प्राण

  जननि दुख-अवनि से

  द्वरित से दो त्राण।

 निराला के इन प्रार्थना गीतों में कवि हृदय की आत्म जर्जरता अधिक व्यक्त हुई है। माँ की शरण में कवि अपने जीवन की समस्त-व्यथा से मुक्ति चाहते हैं-

  माँ अपने आलोक निहारो,

  नर को नरक त्रास से वारो।

 मातृशक्ति के अतिरिक्त निराला जी की भक्ति में करुणावतार प्रभु भी इष्टरूप में समाहित है। जिन्होंने जीवन से हताश कवि को पूर्ण भक्त बना दिया। संसार सागर से जीवन नौका को पार ले जाने ‘खेवा’ बढ़ जाने वाले प्रभु से प्रार्थना है-

  डोलती नाव, प्रखर है धार

  सँभालो जीवन-खेवनहार।

 मन की प्रत्येक समस्या का समाधान करने वाले विश्वाधार ही इस भव से पार लगा सकते हैं-

  भव सागर से पार करो हे

  गह्वर से उद्धार करो हे।

  ’ ’ ’ ’

  मन का समाहार, करो विश्वाधार

  कोई नहीं और एक तुम्हीं हो ठौर

  दूर सब जन पौर, भव से करो पार।1

 इसीलिये कवि अपने प्रभु को आँखों में हँसने और मन में बसने तथा दोनों को थाम लेने की प्रार्थना करते हैं।2 मानव के व्यथित मन को शान्ति देने वाले समाज में फैले अविश्वास को दूर करने वाले, स्वार्थ में लिप्त चंचल मन वाले मनुष्य को राह पर लाने वाले प्रभु से यह भक्ति निराला को अद्वैत दर्शन से प्राप्त हुई है। परम शक्ति से भक्ति में कवि ने नाम स्मरण भी किया है-

  कृष्ण-कृष्ण राम-राम

  जपे हैं हजार नाम।

  ’ ’ ’

  राम के हुये तो बने काम

  सँवरे सारे धन, धान, धाम।

  ’ ’ ’ ’

  जप शिव, जप विष्णु-विष्णु

  शंकर, जप कृष्ण राम

  शत विध, नमान्नबन्धु

  बान्धव हे निराकार ।

 नाम स्मरण की बात कवि अवश्य कहते हैं पर कर्म की भावना कुंठित नहीं होने देते। जीवन नश्वर है, ब्रह्म शाश्वत है यह स्मरण आते ही जीवन समर के संघर्षों से हारता मन ईश्वर की शरण में आ जाता है-

  विपदा हरण हार हरि हे करो पार

  प्रणव से जो कुछ चराचर तुम्हीं सार !

  तुम्हीं अविनाशी विहग व्योम के देश

  परिमित अपरिमाण में तुम हुये शेष।

  ’ ’ ’ ’ ’

  मूर्Ÿा हो या स्फूर्त तुम कुछ न आया

  पदों पर दण्ड प्रणाम से सम्भार।

 निराला की भक्ति यदि भाव प्रधान है तो उपदेश प्रधान भी है और मानव के कल्याण की कामना से अभिभूत भी है। निराला की भक्ति में समष्टि कल्याण की भावना कहीं लुप्त नहीं होती है। ईश्वर से कवि का आत्म निवेदन में समस्त विश्व की संवेदना को अपने साथ समेट कर चलते हैं-

  द्वार पर तुम्हारे

  खड़ा है विश्व

  कर पसारे।

 इस तरह हम देखते हैं कि निराला की भक्ति ज्ञान और कर्म दोनों से ही युक्त है। सत्कर्म का विवेश मानवता की व्याप्ति के साथ प्रभु में आस्था कवि की भक्ति का मुख्य आधार है।



(ब) अध्यात्म व दर्शन-



 निराला जी के गीतिकाव्य में आध्यात्मिक चिंतन सुदृढ़ आधार के साथ स्थित है। मानवीय दृष्टिकोण से युक्त निराला जी का अध्यात्म-दर्शन उनका नितान्त मौलिक चिंतन है। इसीलिये निराला जी को भारतीय वेदान्त दर्शन का कवि कहा गया है।2 निराला जी के आध्यात्मिक विचारों पर बंगाल के परिवेश स्वामी रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद के अद्वैतवाद का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है।3 यह अद्वैत साधना सहजानुभूति और अध्यात्म पर आधारित थी। धर्म इनके लिये आनंद था। समाधि इनकी पूजा विश्वास और जागृत उसके सोपान थे, उत्थान और मुक्त चरम प्राप्त।4 भारतीय वेदान्त दर्शन के भक्त ज्ञान, कर्म और योग तथा शंकराचार्य स्वामी रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद जैसे विद्वानों के प्रभाव से निराला जी के          अध्यात्मिक विचारों का स्वरूप निर्मित हुआ है।

 अद्वैतवाद आत्मा और परमात्मा में अभिन्नता देखता है। परमात्मा सर्व व्याप्त, सत्य, अनादि और अविनाशी है जिसकी क्रीड़ाभूमि यह सम्पूर्ण चराचर सृष्टि है। आत्मा या जीव परमात्मा का ही अंश है। आत्मा माया के वशीभूत हो, सत्य से विमुख हो सांसारिक आवागमन के चक्र में फँसती है और इस मायाभूत संसार में विभिन्न कष्ट उठाती है। ब्रह्मविद्या आत्मा को सत्य से परिचित कराकर परमात्मा से मिलन कराती है तभी जीव को यह ज्ञान होता है कि ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है। यही अद्वैतवाद है इसी का प्रतिपादन आदि शंकराचार्य ने किया था। ब्रह्म ज्ञान के लिये ज्ञान, भक्ति और कर्म ये तीन प्रमुख साधन हैं। निराला जी शंकराचार्य के इस अद्वैत दर्शन से पूर्ण रूपेण प्रभावित थे। यह बात अनेक समालोचकों ने स्वीकार की है।1

 निराला जी का यह अध्यात्म चिंतन उनके आरम्भिक गीतों से ही प्रारम्भ हो जाता है। जूही की कली, अंध विश्वास, पंचवटी प्रसंग, तुम और मैं, जागरण, अध्यात्म फल, परिमल के गीतों से स्पष्ट है।

 परमतत्व या ब्रह्म जो कि मानवीय गुणों से बहुत ऊपर है निराला जी का सबसे प्रिय विषय है। निराला जी ने अपने इस परम चेतन, और अविनाशी को निःस्पृह, निःस्व, निरामय, निर्मम, निराकांक्ष, निर्लेप, निरुद्गम, निर्भय, निराकार निःसम, शम आदि विविध रूपों में व्यक्त किया है।9 वेद की ऋचाओं की तरह निराला भी एक मित्र की तरह उस असीम का सान्निध्य चाहते हैं-

  बैठ ले कुछ देर,

  आओ एक पथ के पथिक-से

  प्रिय, अन्त और अनन्त के,

  तम-गहन-जीवन घेर।

 एक ही ब्रह्म की व्याप्ति इस सम्पूर्ण सृष्टि में है उसी के परम प्रकाश से यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उद्भाषित है, उसी की सचेतन सŸाा इस ब्रह्माण्ड में परिव्याप्त है-

  जिस प्रकाश के बल से

  सौर ब्रह्माण्ड को उद्भासमान देखते हो

  उसमें नहीं वंचित है एक भी मनुष्य भाई।

  व्यष्टि और समष्टि में समाया वही एक रूप

  चिद्धन आनंद कन्द।

 सृष्टि का निर्माण ईश्वर की  सुन्दर इच्छा का ही परिणाम है। वेदान्त दर्शन की यही प्रतिध्वनि निराला जी के काव्य में गूँज रही है-

  जिनकी इच्छा से संसार में संस्तरण होता-

  चलते-फिरते हैं जीव,

  उन्हीं की इच्छा फिर सृजती है सृष्टि नयी।

 आत्मा में जब सत् चित् आनन्द तीनों स्वरूप मिलते हैं तभी आत्मा ब्रह्मलीन होती है। आत्मा अपने शुद्ध रूप में सर्वदा मुक्त है-

  मुक्त हो सदा ही तुम

  बाधा-विहीन-बन्ध-छन्द ज्यों

  डूबे आनन्द में सच्चिदानन्द रूप।

 आत्मा अजर और अमर है, स्वतंत्र है लेकिन वह इस स्वातन्त्र्य बोध कब पहचानती है। इस पर निराला जी स्वयं कहते हैं-

 “जिस केन्द्र में विचार उठता है उस केन्द्र में स्थिर रहना ही स्वातन्त्र्य है वही केन्द्र ब्रह्म है। वहाँ आप यदि स्थिर हो गये तो फिर कोई अभिव्यक्ति आपको चंचल नहीं कर सकेगी।”

 आत्मा को हृदय की चंचल गति सुरसरिता, मन मोहिनी माया, प्रकृति प्रेम जंजीर कहने वाले निराला जी अंततः आत्मा और परमात्मा के दिव्य मधुर      सम्बन्ध को बड़े ही भावपूर्ण शब्दों में स्वीकार करते हैं-

  तुम नाद-वेद ओंकार-सार,

  मैं कवि-शृंगार शिरोमणि

  तुम यश हो मैं हूँ प्राप्ति

  तुम कुन्द-इन्द-अरविन्द शुभ्र

  तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति।

 निराला का मत है कि यह आत्मा और परमात्मा का सम्बंध है जो चिरकाल से चला आ रहा है। परमात्मा अनंत शक्ति का भण्डार है और आत्मा उसका अंश होने से उसकी सब शक्तियों से युक्त है।

  तुम दिनकर के खर किरण जाल

  मैं सरसिज की मुस्कान।

 जीवात्मा का सम्बन्ध एक ओर जगत से है तो दूसरी ओर परम तŸव से है। आत्मा और परमात्मा दोनों के सन्दर्भ में ही जीव की महŸाा भी अनुपेक्षणीय है। उसी के कारण सृष्टि का अस्तिŸव है-

  मैं न रहूँगी जब सूना होगा जग

  समझोगे तब, यह मंगल कलरव सब

  था मेरे ही स्वर से सुन्दर जगमग

  चला गया सब साथ।

 जीवात्मा को ईश्वरीय अनुकम्पा उपलब्ध होते ही उसे यह संसार अवरोधक नहीं लगता-

  नाथ तुमने गहा हाथ वीणा बजी

  विश्व यह हो गया साथ द्विविधालजी।

 मायाजन्य इस संसार से जब जीवात्मा में मुक्ति की चेतना जाग्रत हेाती है तब वह परमात्मा की सŸाा को पहचानने का प्रयत्न करने लगता है। प्रेममयी भाव भक्ति के द्वारा जीव सूक्ष्म से सूक्ष्मातिसूक्ष्म होता हुआ उस अजस्र प्रकाश पुंज को पाकर परमानन्द में लीन होता है-

  पार करता रेखा जब समष्टि अहंकार की,

  चढ़ता है सप्तम सोपान पर,

  प्रलय तभी होता है,

  मिलता वह अपने सच्चिदानन्द रूप से।

 वेदान्त दर्शन की तरह निराला के दर्शन में भी भक्ति, ज्ञान, योग और कर्म सभी समाहित हैं। जीवन का अवलम्ब सेवा मानकर भक्ति में लीन रहकर मुक्ति चाहते हैं-

  भक्ति-कर्म-योग-ज्ञान एक ही हैं,

  एक ही है दूसरा नहीं है कुछ

  द्वैत भाव ही है भ्रम।

 ब्रह्म एक ही है फिर भी उसकी प्राप्ति साधना में भ्रम के अन्दर से ही जाना पड़ता है। शुद्ध चिŸाात्मा में प्रेमांकुर फूटता है यही प्रेम निराला को मानवीय प्रेम की निश्छल भाव-भूमि पर लाकर खड़ा करता है। ऐसी ही प्रेम संवेदना से युक्त जीवात्मा को अपने परम स्वरूप का दर्शन होता है-

  पाया स्वरूप निज,

  मुक्त कूप से हुई

  नीड़स्थ पक्षी को

  तम विभावरी गई-

  विस्तृत अनंत पथ

  गगन का मुक्त हुआ

  मुक्त पंख उज्ज्वल प्रभात में,

  ज्योतिर्मय चारों ओर

  परिचय सब अपना ही ,

  स्थिति में आनन्द में चिरकाल

  जाल-मुक्त ! ज्ञानम्बुधि।

 इसी परमात्मा से मिलन की बात कवि अपने गीतों में बार-बार करते हैं-

  ज्योति में तेरी प्रिय

  परिचय अपना हुआ

  ’ ’ ’

  क्षणिक प्रवाह में बह गया अंधकार,

  लुप्त अस्तिŸव,

  भासमान एकमात्र ज्ञान, उज्ज्वल आनंद

  सुख पूरित प्रभात,

  केलि-रश्मियों की रह गई।

 अपने कुछ गीतों में अपने ही हृदय में परम तŸव को खोजने की बात निराला जी ने कही है। जब तक वे मानवीयता से सम्बद्ध हैं उन्हें अंधविश्वास के छूटने का दुःख हो ही नहीं सकता है।

  पास ही रे हीरे की खान

  खोजता कहाँ और नादान।

  ’ ’ ’ ’

  छूटता है यद्यपि अधिवास

  किन्तु फिर भी न मुझे कुछ त्रास।

 ब्रह्म और जीवात्मा के मिलन में बाधक माया पर भी निराला जी ने बहुत कुछ कहा हे। मूलतः आत्मा परमात्मा से अभिन्न है। भेद का सृजन माया के कारण ही होता है-

  व्यष्टि औ समष्टि में नहीं है भेद

  भेद उपजाता है भ्रम

  माया जिसे कहते हैं।

 माया ही परमात्मा का सत्य स्वरूप देखने में बाधक बनती है। यह सम्पूर्ण संसार माया के वशीभूत है।

  माया की गोद, खेलता है चराचर तेरा

  न लगा हाथ, कैसा भर गया सागर तेरा

 जीवात्मा अज्ञान के वशीभूत हो स्वयं अपने ही मायाजाल का सृजन करती है और माया के भँवर में डूब जाती है।

  व्यर्थ की चिन्ता में चित्त डाल

  गूँथ अपना यह माया जाल

  फँसा पग अपने तू तत्काल

  बुलाता औरों को बेहाल।

 निराला कोई दार्शनिक मत का प्रतिपादन करने वाले संत नहीं हैं बल्कि एक कवि हैं उनका दर्शन किसी वाद विशेष में न बँधकर मानवीय कल्याण की कामना की उपज मात्र है। इसीलिये कर्म के प्रतिपादन में वह प्रेम, सेवा और भक्ति का मार्ग उचित समझते हैं। ईश्वर की शरण में जीवन के महादुख मिट जाएँगे ऐसा उनका विश्वास है।

 सखी री यह डाल वसन वासन्ती लेगी, सोचती आप अपलक खड़ी, प्रिय यामिनी जागी, गई निशा वह हँसी दिशाएँ आदि गीतों में उनका यह प्रेम दर्शन प्रेम और सौंदर्य की भावना के साथ विद्यमान है।

 निराला जी का दर्शन किसी संप्रदाय विशेष का न होकर वैयक्तिक और सामाजिक विरक्ति का प्रतिफल है। हाँ निराला जी के दार्शनिक विचारों में एक नितांत नवीननता और मौलिकता है उनके उर्ध्वगमन के चित्र हैं जो उन्हें अन्य दार्शनिक विचारों वाले कवियों से अलग हटाती है। निराला की जीवात्मा असीम, विराट से सम्बन्ध स्थापन में जो उर्ध्व गमन करती है ऐसा उन्मुक्त विचरण नितान्त निराला की देन है-

  वह उस शाखा का वन विहंग

  उड़ गया मुक्त नभ निस्तरंग-

 इसी उन्मुक्त आकाश में विचरण का प्रसंग राम की शक्ति पूजा में भी मिलता है। यहाँ पर जीवात्मा यौगिक क्रियाओं द्वारा ऊर्ध्व गमन कर परमशक्ति का दर्शन करती है। वैसे निराला का दर्शन मानवीय संवेदना से मुक्त होकर नव निर्माण की प्रेरणा देता है। भौतिकता को एकदम तिरस्कृत न करके उसमें भी अपनी आशक्ति प्रकट करता है। मानव और ईश्वर को आस्था तथा आस्तिकता केा सुन्दर भाव-भूमि प्रदान करता है। इस भाव-भूमि का निर्माण औपनिषदिक विचारधारा के समन्वय से होता है।



(स)- रहस्य भावना-



 अद्वैत चिन्तन का भावात्मक पक्ष रहस्यवाद के अंतर्गत आता है। असीम, परमब्रह्म से आत्मा के मिलन में कुछ ऐसे व्यवहार भी होते हैं जो अस्पष्ट होते हैं। यहीं पर साधक की भावना रहस्यमय हो जाती है। दार्शनिक चिन्तन का अद्वैतवाद भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद बन जाता है। क्योंकि “बहिरंग जीवन से सिमट कर जब कवि की चेतना ने अन्तरंग में प्रवेश किया तो कुछ बौद्धिक जिज्ञासायें- जीवन और मरण सम्बंधी, प्रकृति और पुरुष सम्बंधी, आत्मा और विश्वात्मा सम्बंधी, काव्य में स्वाभावतः आ गई।” वास्तव में रहस्य भावना परमात्मा का बोध और साक्षात्कार है। यह आध्यात्मिक अनुभूति की वह अवस्था है जिसमें साधक परमात्मा के मिलन का चरम प्रयास करता है।

 यह रहस्यवाद निराला जी के गीतिकाव्य में दर्शन परक प्रकृति, प्रेम और भक्ति सभी रूपों में मिलता है। आत्मा परमात्मा के संबन्ध निरूपण में रहस्य भावना का निराला में स्वतः समावेश हो गया है।

 निराला की रहस्यभावना में आस्था और समर्पण का भाव अधिक है, जिज्ञासा कम है। वे जिज्ञासा की सहज सीमा से बहुत ऊपर जाकर आत्मा-परमात्मा के मिलन और परमात्मा में विलीन होने की मधुर इच्छा में निरत है। “वे कबीर, मीरा और महादेवी की भँाति अपने को हरि की बहुरिया नहीं कहते वरन् वे वेदोपनिषद् के चिन्तन के अनुसार आत्मा-परमात्मा दोनों को पुल्लिंग मानते हैं क्योंकि आत्मा, परमात्मा का ही अंश है।”1

 निराला के रहस्यवाद की एक विशेषता यह है कि उसका प्रथक अस्तित्व ने होकर वह आध्यात्मिक चिंतन वाले गीतों में सर्वत्र व्याप्त है। निराला की रहस्य भावना उनके अपने दर्शन-चिंतन का परिणाम है। ब्रह्म और जीवन के सम्बंध की रहस्य भरी व्याख्या करते हुये कवि ने कहा है-

  तुम तुंग हिमालय-शृंग

  और मैं चंचल-गति सुर सरिता।

  तुम विमल हृदय उच्छ्वास

  और मैं कान्त कामिनी कविता।

 अपनी इस रहस्यात्मकता में कवि ने एक जिज्ञासु के रूप में उस असीम सत्ता से कई प्रश्न भी किये हैं-

  मृत्यु निर्माण प्राण-नश्वर

  कौन देता प्याला भर-भर ?

  ’ ’ ’ ’

  नाचते ग्रह, तारा-मण्डल

  पलक में उठ गिरते प्रति पल,

  धरा घिर घूम रही चंचल

  काल-गुणत्रय-मय-रहित समर।

  काँपता है वासन्ती वात,

  नाचते कुसुम-दशनतरु-पात,

  प्रात, फिर विधुप्लावित मधु-रात।

 सम्पूर्ण सृष्टि के एक-एक तत्त्व में उस असीम की सत्ता का आभास पा कवि पूछ बैठता है-

  किस अनंत का नीला अंचल हिला-हिलाकर

  आती हो तुम सजी मण्डलाकार ?

  एक रागिनी में अपना स्वर मिला-मिलाकर

  गाती हो ये कैसे गीत उदार ?

  ’ ’ ’ ’ 

  चरण बढ़ाती हो,

  किससे मिलने जाती हो।

 उस परम सत्ता के प्रति कवि की असीम अनुरक्ति है। यह आस्था कवि की रहस्य भावना, सौन्दर्य और प्रेम के विविध रूपों में अभिव्यक्त हुई है। वे समस्त विश्व में उस परम सौंदर्य को बिखरा हुआ देखते हैं।

  कौन तुम शुभ्र किरण वसना।

  सीखा केवल हँसना-केवल हँसना

  मन्द मलय भर अंग गन्धमृदु,

  बादल अलका बलि कुंचित ऋजु,

  तारक हार, चन्द्र मुख, मधु ऋतु

  सुकृत -पुंज-अशना।

  शुभ्र किरण वसना।

 प्रेम मानव हृदय का सनातन भाव है। इसी सनातन प्रेम भाव का ‘जूही की कली’3 तथा ‘प्रिया के प्रति’4 में रहस्य भाव के साथ वर्णन हुआ है।

 परम तŸव के दर्शन की जिज्ञासा कवि को व्याकुल कर रही है । जैसे-

  तुम हो अखिल विश्व में

  या यह अखिल विश्व तुममें

  अथवा अखिल विश्व तुम एक,

  यद्यपि देख रहा है तुम में भेद अनेक।

 अपने उस परम प्रिय से मिलन में देरी पर कवि का हृदय विरहानुभूति से भर कर व्यथित हो उठता है। आशा निराशा के झूले में झूलने लगता है-

  कब से मैं पथ देख रही प्रिय,

  उर में न तुम्हारे रेख रही प्रिय।

  ’ ’ ’ ’ ’

  मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा ?

  स्तब्ध, दग्ध मेरे मरु का तरु

  क्या करुणा कर खिल न सकेगा ।

 प्रिय से मिलन में आत्मा अभिसारिका नायिका की तरह प्रिय से मिलन को चल पड़ती है। क्योंकि उसकी रूप-छवि मन में ऐसी समा गई है कि बिना मिलन के शृंगार भी पूरा कहाँ है-

  मौन रही हार

  प्रिय पथ पर चलती, सब कहते शृंगार

  ’ ’ ’ ’ ’ 

  शब्द सुना हो, तो अब लौट कहाँ जाऊँ

  उन चरणेों को छोड़, और शरण कहाँ पाऊँ ?

 इस मिलन के लिये जग के उस पार जाना ही अभीष्ट है जहाँ प्रेम की रस धार बहती है। वहीं ज्योति का ज्योति से मिलन होता है, अतः आत्मा वहाँ पहुँच द्वार पर दस्तक देती है, करुण स्वर में पुकारने लगती है-

  बंद तुम्हारा द्वार !

  मेरे सुहाग शृंगार !

  द्वार यह खोलो !

  सुनो भी मेरी करुण पुकार !

  जरा कुछ बोलो !

 अन्त में मिलन होता है। प्रिय की बाँह पकड़ते ही तन शीतल हो जाता हैै-

  मैं बैठा था पथ पर

  हँसे किरन फूट पड़ी

  भूल गये पहर घड़ी

  उतरे बढ़ गही बाँह

  शीतल हो गई देह।

 भक्ति परक रहस्य भावना में कवि ने मातृ शक्ति के ज्योतिर्मयी, देवी, अखिल सुन्दरी के रूप में उस परम सत्ता का दर्शन किया है। जैसे राम की शक्ति पूजा में राम द्वारा दुर्गा की उपासना करवाने का चित्र ऐसी ही रहस्य भावना का प्रतीक है।

 नारी रूप में परम सत्ता का निखिल सौन्दर्य मयी के रूप में दर्शन निराला ने बड़े ही भाव रूप में प्रस्तुत किया है-

  रहा तेरा ध्यान

  जग का गया सब अज्ञान।

  गगन घन-विटपी, सुमन नक्षत्र-ग्रह, नव-ज्ञान

  बीच में तू हँस रही ज्योत्सना-वसन परिधान।1

 योगियों की तरह आत्मा-परमात्मा का अद्वैत भाव भी निराला के कई गीतों में हैं-

  जगता है जीव जब

  क्रम-क्रम से देखता है

  अपने ही भीतर वह

  सूर्य, चन्द्र, ग्रह, तारे।

 परम ब्रह्म के दर्शन की हीरे सी खान स्वतः साधक के अंदर है लेकिन वह फिर भी भ्रमवश इस सृष्टि में उसे ढँ़ूढ़ता है।3ै और जिज्ञासु की तरह प्रश्न करता है-

  कौन तम के पार रे कह ?

  अखिल-पल के स्रोत-जल जग

  गगन घन-घन-धार रे !

 और अंत मे उस परम सत्ता से साक्षात्कार होने पर, उसके साथ तादात्म्य का अनुभव करने पर जीवात्मा उस सर्वत्र में केवल ‘मैं’ का ही दर्शन कर कह उठती है-

  वहाँ-कहाँ कोई है अपना ? तव-

  सत्य नीलिमा में लयमान !

  केवल मैं, केवल मैं, केवल

  मैं, केवल मैं, केवल ज्ञान।

 इस प्रकार भक्ति, प्रेम, प्रकृति और दर्शन सभी प्रकार से निराला का रहस्यवाद अपनी कसौटी पर खरा है। उनका रहस्य चिन्तन अपना स्वतंत्र व मौलिक है। निराला की रहस्य भावना अपने सभी रूपों में पूर्ण है। हाँ यहाँ पर यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि आध्यात्मिक चिन्तन की तरह रहस्य दर्शन भी मानव की मंगल कामना से परिपूर्ण है।

निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना

निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना   

                              -डा० साधना शुक्ला
   - 2 ---

अपने गीतिकाव्य में मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापना में ही निराला जी अपने जीवन की सार्थकता मानते हैं। इसी के लिये वह सामान्य जन की करुणा से द्रवीभूत हो ‘मैं शैली’ अपना लेते हैं।4 उनके दुख से द्रवीभूत हो अपने हृदय में सघन वेदना का अनुभव करते हैं और इन मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापना में विद्रोह, संघर्ष, क्रांति का आह्वान करते हुये अन्त में प्रभु से करुण स्वर में प्रार्थना करते हुये दिखाई देते हैं-
उन चरणों में दो मुझे शरण,
करूँ लोक-आलोक संतरण।5
इस तरह इन मूल्यों के लिये मानवीय मूल्यों की इस आदर्श प्रतिष्ठा में कवि के गीतिकाव्य में अपने देश के भव्य सांस्कृतिक गरिमा से युक्त अनेक स्मृति-चित्र उभरते हैं जिनमें- खण्हर के प्रति,6  दिल्ली,7  उद्बोधन,8  सहस्राब्दि,9  यमुना के प्रति,10  यही,11 प्रमुख हैं।
निराला जी ने भारत के हर युग के जीवनादर्शों की खण्हर होती हुई पीड़ा को जैसे स्वयं अनुभव किया है। उन भव्य आदर्श जीवन मूल्यों के भारत के खण्डहर को अपना प्रणाम इन शब्दों में प्रस्तुत किया है-
खण्डहर ! खड़े हो तुम आज भी ?
अद्भुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज
विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें-
करुणाकर, करुणामय गीत सदा गाते हुये ?
आर्Ÿा भारत ! जनक हूँ मैं
जैमिनि-पतंजलि-व्यास-ऋषियों का,
मेरी ही गोद में शैशव विनोद कर
तेरा है बढ़ाया मान
राम कृष्ण भीमार्जुन-भीष्म नरदेवों ने।
तुमने मुख फेर लिया
सुख की तृष्णा से अपनाया है गरल
तो बसे नव छाया में
नव स्वप्न ले जगे,
भूले वे मुक्त प्राण, साम-गान, सुधापान।
बरषों आशीष, हे पुरुष पुराण
तव चरणों में प्रणाम है।1
इसी स्मृति-चिन्तन में ‘यमुना के प्रति’ में भी कवि यही पुरातन जीवन मूल्यों केे बिखर जाने की बात कहते हैं। जो कभी यमुना के तट पर, कुंजों में, ब्रज की गलियों में निर्मित हुये थे। जिनमें कृष्ण और ब्रजवासियों के स्नेह का अंकुर फूटा था। आज के समाज में इस स्नेह की कमी और स्वार्थ में निरंतर गहरे फँसते हुये मानव को देख कवि का अपने समय की संस्कृति की धरोहर यमुना से प्रश्न पूछना मार्मिक ही है-
यमुने तेरी इन लहरों में
किन अधरों की आकुल तान,
पथिक-प्रिया सी जगा रही है
उस अतीत के नीरव गान ?
बता कहाँ अब वह वंशीवट ?
कहाँ गये नटनागर श्याम ?
चल-चरणों का व्याकुल पनघट
कहाँ आज वह वृन्दाधाम ?2
कवि की स्मृति का यह प्रयास अपने समय के स्नेह रिक्त मानव के मन में स्नेह से जीवन जियो का संकेत है।
इसी मर्यादित स्नेह की स्मृति ‘दिल्ली’ शीर्षक गीत में भी है-
क्या यह वही देश है-
भीमार्जुन आदि का कीर्तिक्षेत्र,
चिर कुमार भीष्म की पताका ब्रह्मचर्य दीप्त
उड़ती है आज भी जहाँ के वायु मण्डल में
उज्ज्वल, अधीर और चिर नवीन ?
श्री मुख से कृष्ण के सुना था जहाँ भारत ने
गीता-गीत सिंहनाद-
मर्मवाणी जीवन-संग्राम की-
सार्थक समन्वय ज्ञान कर्म-भक्तियोग का ?
यह वही देश है
परिवर्तित होता हुआ ही देखा गया जहाँ
भारत का भाग्य चक्र ?
आकर्षण तृष्णा का
‘पृथ्वी’ की चिता पर
नारियों की महिमा उस सती संयोगिता ने
किया आहूत जहाँ विजित स्वजातियों को
सुनते ही रहे खड़े भय से विवर्ग जहाँ
अविश्वस्त, संज्ञाहीन, पतित, आत्मविस्तृत नर ?
क्या यह वही देश है,
सन्ध्या की स्वर्ण वर्ण किरणों में
दिग्वधू अलस हाथों से,
थी भरती जहाँ प्रेम की मदिरा।1
ऐसे प्रेम-स्नेह से जीवन जीने वाले मानव के देश में स्वार्थ, कपट, अहं, यश की भूख का नग्न ताण्डव देख कवि कह उठते हैं-
हाय री यशोलिप्सा,
अंधे की दिवस तू
अंधकार-रात्रि -सी।
लपटों में झपट
प्यासों मरने वाले
मृग की मरीचिका है।1
कवि निराला अपने ऐसे आदर्श वैभवशाली अतीत के जीवन मूल्यों को विनिष्ट होते देख कर चुप नहीं बैठते बल्कि उन मूल्यों की नवसर्जना के लिये कहते हैं-
मेरे गीतों का छाया अवसाद,
देखा जहाँ, वहीं है करुणा,
घोर विषाद !
ओ मेरे - मेरे बन्धन उन्मोधन!
ओ मेरे - ओ मेरे क्रंदन-वंदन !
ओ मेरे अभिनंदन !
ये संतप्त लिप्त कब होंगे गीत,
हृतल में जैसे शीतल चन्दन।2
‘तुलसीदास’ कवि निराला का मानवीय मूल्यों को प्रतिस्थापित करने वाला एक श्रेष्ठ गीति कहा जा सकता है। मुगल कालीन संस्कृति पर हिन्दू संस्कृति की निर्माण मूलक चेतना अपने में अद्वितीय है।3
ऐसा ही नहीं है कि कवि केवल ऐतिहासिक भव्य संस्कृति की स्मृति में निमग्न होकर ही नवनिर्माण चाहते हैं बल्कि तत्कालीन नवीन और समसामयिक वैज्ञानिक संस्कृति के अतिशय विकास और उससे होने वाले विनाश से भी चिन्तित है।
आज सभ्यता के वैज्ञानिक जड़ विकास पर
गर्वित विश्व नष्ट होने की ओर अग्रसर
स्पष्ट देख रहा , सुख के लिये खिलौने जैसे
बने हुये वैज्ञानिक साधन, केवल पैसे
आज लक्ष्य में है मानव के, स्थल-जल-अम्बर
रेल-तार-बिजली-जहाज नभयानो से भर
दर्प कर रहे हैं मानव, वर्ग से वर्गगण,
भिड़े राष्ट्र से राष्ट्र, स्वार्थ से स्वार्थ विचक्षण।4
मानव के विनाश की इसी चिन्ता से ग्रस्त कवि समाज के उस व्यथित, आक्रांत और उत्पीड़ित मानव समाज की ओर मुड़ते हैं जो उनकी सांस्कृतिक चेतना और मानवीय मूल्यों की स्थापना में कभी न भूलने वाली वाणी है। निराला जी ने व्यष्टि और समष्टि को समान महत्व दिया है। वे यह समझते थे कि व्यक्ति के विकास में ही समष्टि का विकास निहित है। निराला जी किसी एक व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष के साथ नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय जन मानस के साथ दिखाई दिये हैं। मानवीय चेतना और प्रेरणा के ऊपर गायक निराला छायावादी अन्य कवियों से कहीं बहुत आगे दिखाई दिये हैं। इसीलिये उनका काव्य नूतन समाज व्यवस्था और नूतन संस्कृति के निर्माण का स्वर है।

2- सामाजिक मान्यतायें

सामाजिक मान्यतायें समाज की आदर्श व्यवस्था बनाये रखने में सहायक होती है। सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं से जैसे- वर्ण व्यवस्था, धर्म, शिक्षा, जाति, विवाह, वेश-भूषा तथा मानवीय व्यवहार से इन मान्यताओं का निर्माण होता है। समाज की यह मान्यतायें मानव को निश्चित तरीके से अपना व्यवहार करने को प्रेरित करती हैं। इनके विपरीत आचरण पर मनुष्य को आलोचना का पात्र बनना पड़ता है। अर्थात् ये सामाजिक मान्यतायें, लोकाचार या रीतियाँ मानवीय कल्याण की भावना से युक्त होती है।
छायावादी कविता में निराला जी ऐसे कवि हैं जिनका सम्पूर्ण काव्य इन मान्यताओं की सांस्कृतिक चेतना में या तो विरोध के लिये खड़ा है या अतीत की भव्य आदर्श मान्यताओं की स्मृति के रूप में। जहाँ इन मान्यताओं के विरोध की बात है वहाँ ऐसा ही नहीं है कि निराला जी मात्र विरोध ही करते हैं बल्कि वे अपने कथन द्वारा उस इंगित तथ्य की ओर नवीन अर्थ, और नवीन चेतना देना चाहते हैं। वहाँ पर निराला जी आदर्श और उपादेय को ग्रहण करना चाहते हैं और अशोभनीय को छोड़ देने की बात कहते हैं। वर्ण व्यवस्था, अस्पृश्यता, ऊँच-नीच, दहेज, विवाह, नारी जीवन, धर्म तथा सामाजिक जीवन की अन्य विविध मान्यताओं पर निराला जी ने गहरा आक्रोश प्रकट करते हुये उसके सुधार के लिये विविध तर्क प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने धार्मिक रूढ़ियों, पौराणिक देवी-देवताओं के प्रति अन्ध-श्रद्धा, मूर्तिपूजा, साम्प्रदायिक भेदभाव, शूद्रों पर द्विजों के अत्याचार का विरोध किया, मनुष्य मात्र की समानता की घोषणा की.........अपनी क्रांतिकारी दृष्टि से साहित्य की परिधि उन्होंने विस्तृत की, पुरानी संकीर्ण रूढ़ियाँ तोड़कर उन्होंने नये भावों और विचारों के लिये मार्ग प्रशस्त किया।
निराला जी की दृष्टि में मनुष्य की सत्ता ही सर्वोपरि है। और समाज मनुष्य की ही सामाजिक व्यवस्था है। “साहित्य सामाजिक कर्म-विधान का एक सक्रिय अंग है।...........हमारे समाज की जाग्रत शक्तियाँ वे लोग हैं जो दलित और शोषित हैं...............प्रगति शील साहित्य समाज के सुख-दुख की अभिव्यक्ति को ही महत्व देता है...............अर्थात् प्रगतिशील लेखक की भावना सामाजिक भावना है, व्यक्तिगत नहीं।”
निराला जी अपने गीतों के प्रारम्भिक चरण से ही ऐसे व्यथित संघर्षरत मानव की संवेदना से युक्त होकर ऐसी सामाजिक मान्यताओं का यथार्थ बोध कराते रहे हैं जो मनुष्य मात्र के लिये अहितकर है। मनुष्य की सामाजिक दुर्बल मान्यताओं का प्रतिकार करके आदर्श मानवता की भाव-भूमि पर संचरण करना निराला का मुख्य उद्देश्य है। निराला जी ऐसा इसलिये करना चाहते हैं कि समस्त विश्व के मनुष्य हमारी मनुष्यता के दायरे में आ जायें, हर तरह, कर्म, वाणी और मन से भी। यह  क्रिया हमें संसार के मनुष्यों की आँखों में उठा सकती है।
‘प्रबंध प्रतिमा’ की भूमिका में निराला जी लिखते हैं- विचार शुद्धि के लिये धन ही नहीं, समाज, शरीर और मन भी देना पड़ता है, तब विश्व मानवता की पहचान होती है। हमारे पीड़ित, अशिक्षित, पतित, निराश्रय, निरन्न मानवों का तभी उद्धार होगा, तभी भारत की भारती जाग्रत कही जायेंगी, तभी उसकी अपनी विशेषता सिर उठायेगी।
इस तरह निराला जी समाज में फैली संकीर्ण मान्यताओं को या तो मिटा ही देना चाहते हैं या फिर उनमें सुधार कर एक आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते हैं। निराला जी के गीतिकाव्य में विचारों की यह प्रगतिशील आद्योपान्त देखी जा सकती है। उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में आवेश, उत्साह, स्फूर्ति का स्वर है तो परवर्ती काव्य में दैन्य, उत्पीड़न और समाज की शोषित मान्यताओं से भीतर तक टूटे हुये कवि की आहत और व्यंग्य प्रधान वाणी है। समाज के लिये नये जीवन मूल्यों की उद्घोषणा है।
हमारे भारतीय समाज में व्याप्त वर्ण-व्यवस्था जो हमें कोई सुंदर सामाजिक व्यवस्था तो न दे सकी बल्कि ऊँच-नीच की भावना से जनसामान्य को ग्रसित कर दिया। समाज का उच्च वर्ग निम्न वर्ग को छूने में भी कतराने लगा। उच्च वर्ग में एक अहं का भाव जन्मा और निम्न वर्ग को मिला दबा सहमा-सहमा हीन भाव से ग्रसित जीवन। निराला जी को यह सामाजिक वर्ण व्यवस्था बहुत कचोटती है तभी वे ‘तुलसीदास’ में भारतीय संस्कृति के सूर्यास्त और इस्लामी शासन के चन्द्रोदय की बात नहीं भूलते और अगर उन्हें कुछ भी भुलाये नहीं भूलता है तो वह है सम्पूर्ण देश में क्षुद्रतम वासना का साम्राज्य, स्त्रियों का अहं, ब्राह्मणों की चाटुकारिता, दलित शूद्र्रों की दीन-हीन दशा-
विधि की इच्छा सर्वत्र अटल
यह देश प्रथम ही था हत-बल,
वे टूट चुके थे ठाह सकल वर्णों के,
तृष्णोद्धत, स्पर्यागत, सगर्व
स्त्रिय रक्षा के रहित सर्व,
द्विज चाटुकार, द्वत इतर वर्ग वर्णां के।
चलते-चलते फिर निस्सहाय,
वे दीन-क्षीण कंकालकाय,
आशा केवल जीवनोपाय उर-उर में,
रण के अश्वों से शस्य सकल
दलमल जोते ज्यों, दल से दल
शूद्रगण क्षुद्र-जीवन-सम्बल पुर-पुर में।
वे शेष श्वास, पशु मूक-भाष,
पाते प्रहार अब हताश्वास,
सोचते कभी आजन्म ग्रास द्विजगण के
होना ही है उनका धर्म परम,
वे वर्णाश्रम हैं द्विज उत्तम,
वे चरण-चरण बस, वर्णाश्रम रक्षण के।
उपरोक्त पंक्तियों में समाज की उस समय की वर्णव्यवस्था का हृदयग्राही वर्णन है। शूद्रों की दयनीय दशा पर कवि का हृदय भर उठता है। यहाँ पर कवि की लोक मंगलकारी भावना ध्यान देने योग्य है। कवि नहीं चाहते कि ऐसी मान्यता समाज में बनी रहे। उच्च वर्ण ब्राह्मणों के और निम्नवर्ग शूद्रों का संकेतक रहे। वे इसे मिटाना चाहते हैं। समाज में एकता लाना चाहते हैं। ब्राह्मण समाज पर तो उनकी खीज बराबर निकलती है। जैसे-
ये कान्यकुब्ज-कुल, कुलांगार
खाकर पत्तल में करें छेद।
बम्हन का लड़का
मैं उसको प्यार करता हूँ
जात की कहारिन वह
मेरे घर की पनिहारिन वह
आती है होते तड़का
उसके पीछे मैं मरता हूँ।
उपरोक्त पंक्तियों में कवि ब्राह्मण समाज में व्याप्त संकीर्णताओं तथा उनके उच्च होने के अहं पर प्रहार करते हैं।
इसी ‘चर्खा चला’ में भी ‘वेदों’ की जाति चार भागों में बँटी, कहने के अर्थ में भी उनका व्यंग्य ही है। ‘तारे गिनते रहे’ में ‘बनियावाद’ पर करारा प्रहार है।
बालों के नीचे पड़ी जनता बलतोड़ हुई,
माल के दलाल में वैश्य हुये देश हैं।
निराला जी समाज की यह व्यवस्था ऐसे ही नहीं रहने देना चाहते बल्कि नये समाज की कल्पना में वह मनुष्य के जीवन को नवीन स्वतंत्र प्रकाश से भर देना चाहते हैं। समाज में व्याप्त इस ऊँच-नीच की मान्यता को मिटाकर मनुष्यत्व ही सब धर्मों, वर्णों और जातियों में श्रेष्ठ है; की उद्घोषणा करते हैं-
विश्व के जीवन से,
बदले हुये कुम्हार,
नाई-धोबी-कहार,
ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य,
पासी-भंगी-चमार,
परिया और कोल-भील,
नहीं यह आज का हिन्दू,
आज का यह मुसलमान,
आज का ईसाई सिक्ख,
आज का यह मनोभाव,
आज की यह नवरेखा
नहीं यह कल्पना,
सत्य है मनुष्य का
मनुष्यत्व के लिये
बन्द है जो दल अभी
किरण सम्पात से
खुल गये वे सभी।
कवि अपने उत्साह भरे शब्दों के द्वारा समाज में व्याप्त जाति-पाँति की संकीर्ण मान्यता को सदा के लिये दूर कर एकता स्थापित करना चाहते हैं। जहाँ ऊँच-नीच का भाव ही नहीं होगा-
जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ आओ, आओ !
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला
धोबी, पासी, चमार, तेली,
खोलेंगे अँधेरे का ताला
एक पाठ पढ़ेंगे, टाट बिछाओ।
समाज की इन जर्जरित मान्यताओं को सोचने-समझने के लिये निराला का सम्बंध बराबर समाज के कृषक और श्रमिक वर्ग के साथ रहा है। उनकी व्यंग्य की दृष्टि में समाज का अमीर वर्ग है। कुत्ता भौंकने लगा, झींगुर डटकर बोला, छलांग मारता चला गया, डिप्टी साहब आये, मंहगू मंहगा रहा, तथा कुकुरमुत्ता में कवि का यही दृष्टिकोण प्रधान है।
चूँकि हम किसान-सभा के
भाई जी के मददगार
जमींदार ने गोली चलवाई
पुलिस के हुक्म की तामीली को।
ऐसा है पेंच है।
अमीर वर्ग ही शोषक नहीं रहेगा ऐसी जन-शक्ति को निराला जी ने पहचाना था तभी तो उनका मँहगू लुकुआ को समझााता है- एक दिन बड़े-बड़े आदमी धन मान सभी छोड़ेंगे, तभी देश मुक्त होगा और ‘मैं मंहगू’ अर्थात्-‘जनशक्ति’ मंहगा हूँगा।
समाज के आर्थिक वैषम्य पर निराला जी की दृष्टि निरंतर रही है। समाज की यह मान्यता कि जिसके पास धन है उसके पास सोहरत है। समाज उसके साथ है और जहाँ निर्धनता है वहाँ व्यथा है, असफलता है। अन्न के एक-एक दाने की ओर ताकती निर्धन आँखें हैं। भूखे पेट किसान की विवशता है-
वेश-रूखे अधर सूखे
पेट-भूखे, आज आये।
हीन-जीवन, दीन-चितवन
छीन आलम्बन बनाये हैं।
प्यास पानी से बुझाने को
बुझाई रक्त से जब,
आँख से आया लहू,
लोहा बजाया शक्ति से जब,
रुण्ड-मुण्डों से भरे हैं खेत
गोलों से बिछाये।
और समाज का सम्पन्न वर्ग जहाँ अर्थ है वहाँ-
चूँकि यहाँ दाना है
इसीलिये दीन है दीवाना है।
लोग हैं, महफिल है,
नग्में हैं, आवाज है,
दिलदार है और दिल है
शम्मा है, परवाना है,
चूँकि यहाँ दाना है।
इस अीर्थिक वैषम्य पर बार-बार निराला जी प्रहार करते हैं। ‘कुकुरमुत्ता’ का पूँजीपति और शोषक वर्ग, ‘खजोहरा’ के गकले से दौड़ने वाले,  न्याय दिलाने के ठेकेदार धन के लालची वकील, दोनों में ही सजीव दृश्य के साथ गहरा व्यंग्य है। ‘नये पत्ते’ के अन्य कई गीतों में निराला जी आर्थिक सामाजिक व्यवस्था पर अपने सशक्त विचार प्रकट करते हैं। यहाँ तक कि कवि जमींदार और महाजनों को पिशाच तक कह डालते हैं-
जमींदार की बनी
महाजन धनी हुये हैं।
जग के मूर्त पिशाच
धूर्तगण गनी हुये हैं।
धार्मिक अंधविश्वासों पर व्यंग्य करते हुये निराला जी धर्म के नाम पर जनता को भ्रमित करने वाले साधुओं, पण्डों के पाखण्ड को बड़े ही कटु यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया है-
आ रे गंगा के किनारे
झाऊ के वन से पगडण्डी पकड़े हुये
रेती की खेती छोड़कर, फूस की कुटी,
बाबा बैठे झारे-बुहारे !
पण्डों के सुघर-सुघर घाट हैं,
तिनके टट्टी के ठाट हैं,
यात्री जाते हैं, श्राद्ध करते हैं,
कहते हैं कितने तारे !
गंगा के घाटों पर बैठने वाले पाखण्डी साधुओं का ऐसा वर्णन अत्यन्त दुर्लभ है। इसी धर्म के नाम पर हमारे देश के निवासियों को, यहाँ की सभ्यता को कितना छला गया, धर्म और सभ्यता को मानव के खून से रंगा गया है। आखिर धर्म के नाम पर समाज को, सभ्यता केा क्यों दूषित किया जाता है। ऐसी घ्रणित मान्यता की ओर भी निराला जी संकेत करते हैं।
धर्म का बढ़ावा रहा, धोखे से भरा हुआ।
लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर।
खून की नदी बही।
आँख-कान मूँद कर जनता ने डुबकियाँ लीं।
नारी जीवन की कुछ ऐसी मान्यताएँ जो आज भी समाज में कुत्सित रूप लिये हैं, उन पर निराला जी की दृष्टि गई है। ‘विधवा’ नारी जीवन की ऐसी स्थिति है जिसके विषय में समाज की सम्पूर्ण मान्यताएँ उत्पीड़न का पयार्य है। उसके लिये शृंगार जीवन का सुख कुछ भी अर्थ नहीं रखता है बल्कि अपने विगत जीवन की स्मृति में करुणा से पुलकित हो अश्रु बहाती हुई वह भी चुपचाप, जीवन जिये जाना है या ऐसे कहना चाहिये कि जीवन का अन्त करना है। नारी जीवन की यह उपेक्षा भारतीय समाज के लिये अभिशाप है। इसका यथार्थ, सजीव और करुण चित्र हमें निराला जी की ‘विधवा’ में मिलता है-
वह क्रूर-काल -ताण्डव की स्मृति-रेखा-सी
वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन-
दलित भारत की ही विधवा है।
कौन उसको धीरज दे सके ?
दुःख का भार कौन ले सके ?
इसी भारत की मजदूरिन जो अपने नारी सुलभ सुकुमारता को दूर रख पुरुषों की तरह कार्य करती है। ऊँचे-ऊँचे भवनों के निर्माण में सहायक हो पसीना बहाती है। उसके श्रम का कोई मूल्य नहीं है-
उस भवन की ओर देखा छिन्न तार,
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं।
‘रानी और कानी’ निराला जी का ऐसा हृदयस्पर्शी गीत है जिसमें ऐसी कटु सामाजिक मान्यता पर प्रहार है जो आज भी समाज में व्याप्त है । और वह मान्यता है विवाह योग्य लड़की का सुन्दर होना। कुरूप कन्या का विवाह इस समाज में असम्भव है चाहे वह कितनी ही कर्मठ हो, एक कुरूप कन्या के हृदय की भावनायें व उसकी माँ के हृदय को सालती वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति इस गीत में हुई है।
निराला जी धार्मिक, जातिगत और वर्णगत सभी बंधनों से मुक्त नारी को देखना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में ही नारी की सामाजिक दशा में क्रांति सम्भव है कुछ ऐसे ही विचार ‘प्रेयसी’ गीत में मिलते हैं जो निराला के नारी के सम्बंध में प्रगतिशील विचारों के परिचायक हैं-
दोनों हम भिन्न वर्ग,
भिन्न जाति, भिन्न रूप,
भिन्न धर्म भाव, पर
केवल अपनाव से प्राणों से एक थे।
किन्तु दिन-रात का, जल और पृथ्वी का
भिन्न सौन्दर्य से बंधन स्वर्गीय है,
समझे यह नहीं लोग
व्यर्थ अभिमान के।
अपने काव्य नारी के आदर्श रूप के प्रतिष्ठापक निराला जी नारी को अपनी इस दशा से मुक्ति दिलाने की अभिलाषा भी रखते हैं। निराला जी की नारी यदि देवी है तो मानवी भी है। शक्ति का स्वरूप है। और सामाजिक चेतना से मुक्त है-
तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा
पत्थर की, निकले फिर,
गंगा-जल-धारा।
गृह-गृह की पार्वती।
पुनः सत्य-सिुन्दर-शिव को सँवारती
उर-उर की बनो आरती।
निराला जी ने अपने सम्पूर्ण गीतिकाव्य में समाज की किसी न किसी ऐसी मान्यता को छुआ है जो समाज के लिये अहितकर है। निराला जी की ‘सरोज स्मृति’ जिसमें निराला जी ने कान्यकुब्जीय ब्राह्मण समाज की ऐसी कुत्सित मान्यताओं पर प्रहार किये हैं जो कुत्सित और घृणित भी हैं। जिसमें प्रमुख है विवाह, ब्राह्मणत्व, दहेज। सरोज स्मृति में कवि की व्यक्तिगत व्यथा युग की व्यथा बन गई है।
अर्थ की विपन्नता में पिता की स्थिति और पुत्री को चीनांशुक पहना कर न रख पाना एक पिता के हृदय की ऐसी करुण वेदना है जो उन्हें कवि-कर्म अपना कर मिली थी-
धन्ये मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका !
सोचा है नत हो बार-बार
यह हिन्दी का स्नेहोपहार,
कवि जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त
लिखता अवाध गति मुक्त छंद,
पर संपादक गण निरानन्द
वापस कर देते पढ़ सत्वर।
यह हिन्दी के कवि का सम्मान था जिसे सदैव आर्थिक विपन्नता ही मिली थी। अपनी ही भाषा हिन्दी का जो सम्मान आज भी देश में है वह किसी से छिपा नहीं है। फिर उस समय में हिन्दी के आधार कवि को और मिल भी क्या सकता था क्योंकि तब तो स्थिति और भी दयनीय होगी।
हमारे ब्राह्मण समाज में कन्या का बड़ा होना माँ-बाप की चिन्ता का कारण बनता है। अच्छे कुल और अच्छे वर की तलाश, माँ-बाप को झकझोरने लगती है-
सास ने कहा लख एक दिवस
      ‘‘भैया अब नहीं हमारा बस,
पालना पोसना रहा काम,
देना सरोज को धन्य-धाम,
शुचिवर के कर, कुलीन लखकर
है काम तुम्हारा धर्मोŸार,
अपने घर रहो ढ़ूँढ़ कर वर
जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह
होंगे सहाय हम सहोत्साह।
सरोज तो एक गरीब कवि पिता की बेटी थी। उसके लिये वर इस कान्यकुब्जीय ब्राह्मणों के यहाँ बहुत दुष्कर था-
ये कान्यकुब्ज-कुल, कुलांगार
खाकर पत्तल में करें छेद
इनके कर कन्या अर्थ खेद
इस विषय-बेलि में विष ही फल।
क्योंकि इस समाज में मोटा दहेज है तो पुत्री का ब्याह किसी भी पिता के लिये दुष्कर कार्य नहीं है। ब्राह्मण समाज में जहाँ अशिक्षा है जिन्हें जीवन जीने का तरीका भी नहीं मालूम ऐसे कनौजियों को अपना सब कुछ दहेज में देकर पुत्री का ब्याह करना कवि को उचित नहीं लगता। इसीलिये वह एक साहित्यिक योग्य नवयुवक के मिलने पर विवाह की सारी मान्यताओं को तोड़कर अपनी सरोज का विवाह-कर्म करते हैं।
निराला जी ने ‘सरोज स्मृति’ में जिन मान्यताओं पर प्रहार किया है वे सभी मान्यतायें केवल उन्हीं की वयक्तिगत नहीं हैं बल्कि पूरे समाज के साथ हैं। समाज की ऐसी मान्यतायें जो समाज में विषमता की, अव्यवस्था को जन्म देती हैं, उन्हें तोड़कर नवीन आदर्श मान्यताओं की स्थापना करने का प्रयास किया है। वास्तव में निराला जी ने अपने इन सामाजिक प्रगतिशील गीतों में सांस्कृतिक जीवन के टूटते हुये स्वप्नों को नवनिर्माण का स्वर दिया है। समाज में स्वस्थ व्यवस्थित और आदर्श मान्यताओं को स्थापित करने का प्रयास किया है।

3-राष्ट्रीय आदर्श

निराला जी के गीतिकाव्य में राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति बड़े ही सशक्त रूप में व्यक्त हुई है। उनका यह राष्ट्र-प्रेम प्राचीन समृद्धिशाली सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की स्मृति पर निर्मित होकर वर्तमान में देशोत्थान की भावना बनी है। निराला जी की राष्ट्रीयता देश-धर्म तथा जाति आदि संकीर्ण मान्यताओं से परे होकर तन-मन से देश को समर्पित होने का प्रयास है। “निराला की राष्ट्रीयता भारत की इस मिट्टी में उगती, पनपती है परन्तु इससे प्रफुल्लित और पल्लवित होती हुई समस्त मानवता को अपने में समेट लेती है।”
निराला जी के इस राष्ट्र-प्रेम में कुछ राष्ट्रीय आदर्श भी हैं, जिनकी स्मृति निराला जी को बराबर रही है, वे हैं- प्राचीन ऐतिहासिक भारतीय संस्कृति, तुलसीदास, राम, विवेकानंद, रवीन्द्र, गुरुगोविन्द सिंह, आदि। इन आदर्शों की अनुकरणीय स्मृति से निराला में अदम्य साहस, अपराजित स्वाभिमान, तथा ओज भरी वाणी मुखर होती है जो उनके राष्ट्र-प्रेम के स्वस्थ रूप को हमारे सम्मुख रखती है। निराला जी के राष्ट्र-गीतों का स्वर भारत के स्वाधीनता संग्राम के समय का है। फलस्वरूप इन गीतों की राष्ट्रीय भावना में राष्ट्र वंदना, सांस्कृतिक चेतना, स्वतंत्रता का स्वर, मानव की व्यथा, उसके साथ संवेदना तथा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश की प्रवृत्ति दिखाई देती है।
भारतीय समाज में पराधीनता पर विवश चुप बैठे हुये लोगों पर उनका आक्रोश स्वाभाविक है। क्योंकि वह देश-प्रेमी व्यक्ति हैं-
मेरे साथ मेरे विचार
मेरे जाति-
मेरे पददलित-
मौन है निद्रित हैं-
स्वप्न में भी पराधीन !
कितनी बड़ी दुर्बलता !
समझा मैं,
भय ही व्यवस्था जनक है,
निर्भय अपने को
और दुर्बल समाज को
करके दिखाना है-
‘स्वाधीन’ का ही
एक और अर्थ ‘निर्भय’ है।
निराला जी निर्भय भारत को देखना चाहते हैं पराधीन भारत को नहीं। ‘खण्डहर’ को देख उन्हें अपने देश का गौरवशाली अतीत याद आता है। जैमिनि, पतंजलि, व्यास जैसे विद्वान ऋषि गण याद हैं जो भारत की संस्कृति निर्माण में अनुकरणीय रहे, याद आते हैं राम-कृष्ण, भीम, अर्जुन, भीष्म जैसे वीर पुरुष जिन्होंने अपनी वीरता से अपने देश का सम्मान बढ़ाया था ऐसे सम्मानित अतीत वाले भारत की वर्तमान दुर्दशा देख संतृप्त हो ‘खण्डहर’ से पूछते हैं-
खण्डहर खड़े हो तुम आज भी ?
अद्भुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज
विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें-
करुणा कर, करुणामय गीत सदा गाते हुये ?
‘दिल्ली’ शीर्षक गीत में यह जानकर कि यही भीम, अर्जुन और भीष्म जैसे कर्मठ वीरों की कर्म-स्थली है। गीता का ज्ञान-भेद यहीं पर, कृष्ण ने अर्जुन को दिया था। तभी वे कहते हैं-
यह वही देश है
परिवर्तित होता हुआ ही देखा गया जहाँ
भारत का भाग्य चक्र ?
आकर्षण तृष्णा का
सींचता ही रह गया जहाँ पृथ्वी के देशों को
संसृति के शक्तिमान दस्युओं का अदमनीय
पुनः पुनः बर्वरता विजय पाती गई
सभ्यता पर संस्कृति पर।
उपरोक्त पंक्तियों में किस तरह भारत विदेशियों का गुलाम बना स्पष्ट संकेत है। इसी तरह सहस्राब्दि, यहीं, यमुना के प्रति, राम की शक्तिपूजा, तुलसीदास1 तक कहीं भी अपने देश की स्वर्णिम संस्कृति को नहीं भूले हैं। ‘तुलसीदास’ में मुगलों के शासन और अस्त होते हुये भारत के सांस्कृतिक सूर्य का बड़ा ही सजीव वर्णन निराला जी ने किया है।
‘महाराज शिवाजी का पत्र’ और ‘जागो फिर एक बार’ से निराला जी स्वाधीनता के लिये मर मिटने तक की प्रेरणा देशवासियों को दी है।
हाय री दासता
पेट के लिये ही
लड़ते हैं भाई-भाई
कोई तुम ऐसा भी कीर्तिकामी।
कविता की उपरोक्त पंक्तियों से वर्तमान की पराधीन स्थिति पर कवि का आक्रोश फूट पड़ा है। ऐसे में पराधीनता से मुक्ति के लिये कविवर क्रांति चाहते हैं-
आओ वीर, स्वागत है,
सादर बुलाता हूँ।
हैं जो बहादुर समर के,
वे मरके भी
माता को बचायेंगे।
शत्रुओं के खून से
धो सके यदि एक भी तुम माँ का दाग,
कितना अनुराग देशवासियों का पाओगे।
‘शिवाजी’ गुरु गोविन्दसिंह जैसे आदर्शवीर पुरुषों की स्मृति, पराधीन निवासियों में स्वाधीनता का मंत्र फूँकने का प्रयास है। सवा-सवा लाख पर एक सिर को चढ़ा देने की तमन्ना साहस का उद्घोष है-
शेरों की माँद में
आया है आज स्यार-
जागो फिर एक बार।
सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को छूने वाले वीरता भरे कवि के इन गीतों से हम कवि को मानवता की विशाल भूमि पर अवस्थित होते देखते हैं। कवि चाहते हैं कि हम पराधीन न रह कर स्वाधीन हों, सब कुछ हमारे देश का हो, हम अपने देश के हों-
सारी सम्पत्ति देश की हो
सारी आपत्ति देश की बने,
जनता जातीय वेश की हो
वाद से विवाद यह ठने।
अपने इस प्रयास में देश में रहने वाले- हिन्दू-मुसलमान, ईसाई, सिक्ख सभी जातिगत नहीं मनुष्य बनकर इस देश में एकता से रहें । बस यही मनोभाव निराला जी चाहते हैं। निराला जी को अपने भारत पर गर्व है। माँ भारती के प्रति अगाध श्रद्धा है। वीणावादिनि मातृ शारदे की वंदना करते हुये बार-बार निराला जी भारत में स्वतंत्रता का अमृत बरसता हुआ देखना चाहते हैं। और माँ से प्रार्थना भी करते हैं-
वर दे वीणा वादिनि वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे !
काट अंध उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर,
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे !
नव गति नव लय, ताल-छंद नव,
नवल कण्ठ, नव जलद-मंद्र रव,
नव नभ के नव विहग वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !
स्वतंत्रता की इस मंगल कामना में निराला जी माँ भारती का जो भव्य रूप चित्र ‘भारति जय विजय करे’ में अंकित करते हैं वह स्तुत्य है। “राष्ट्रीय स्पंदन व संस्कृति की सुधा का ऐसा सामंजस्य दुर्लभ है।”
निराला जी अपने इस प्रयास में बार-बार माँ का स्तवन कर पराधीनता के कारावरण से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं। मनुष्य जीवन के समस्त स्वार्थों को माँ के चरणों में बलि चढ़ा देना चाहते हैं।
और भारत में ऐसे शक्तिमय श्रेष्ठ, वीर मनुष्यों की उपस्थिति चाहते हैं जो भारत की रक्षा कर सकें। क्योंकि उनके लिये तो-
भारत की जीवन धन,
ज्योतिर्मय परमरमण।
इस प्रकार हम देखते हैं कि निराला जी का राष्ट्र-प्रेम विविध भाव रूपों के साथ अभिव्यक्त हुआ है। भव्य ऐतिहासिक, संस्कृति की स्मृति, सामाजिक पराधीनता और मानवीय संवेदना यह तीनों स्तर एक साथ विद्यमान हैं। अपने राम, कृष्ण, भीष्म, अर्जुन, शिवाजी, गुरुगोविन्द सिंह, गांधी, बुद्ध, विवेकानंद सदृश आदर्श पुरुषों के स्मरण के साथ भारत में स्वाधीनता का आवेशमय स्वर निराला जी ने देना चाहा है। क्योंकि निराला का राष्ट्र प्रेम आत्म-गौरव से परिपूर्ण है। उसमें पराधीनता का कोई स्थान है ही नहीं।

4-धार्मिक चिन्तन 

निराला जी ने अपने काव्य में तत्कालीन समस्याओं, सामाजिक मान्यताओं और मानवीयता को ही अभिव्यक्ति नहीं दी है बल्कि पुरातन और सनातन भारतीय संस्कृति के स्वर को अपने गीतिकाव्य में उदात्त रूप में झंकृत किया है। धार्मिक चिन्तन की दृष्टि से निराला जी का काव्य विविध भाव-चित्रों का संगम है। “वे भारतीय संस्कृति के व्याख्याता हैं। पुरातन काल से चली आती भारतीय-साधना -परम्परा को उन्होंने अपनी सहज संकल्पात्मिकता बुद्धि एवं स्नेहासिक्त उन्नत प्रबुद्ध भावना के समन्वय से विकास की नई दिशा दी है।”

निराला जी का धार्मिक चिन्तन भावना के धरातल को छूता हुआ उनके गीतों में मुखर हुआ है। इन गीतों में कहीं करुणा की और कहीं गंभीर दर्शन की भाव गंगा प्रवाहित हुई है। व्यक्तिगत जीवन की अतिशय संवेदना और कठोरता तथा मानवीय व्यथाओं तथा सामाजिक विषमताओं को प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले निराला का धार्मिक चिंतन भी मानवीयता के स्वर से झंकृत हो उठा है। भारतीयता के प्रबल समर्थक एवं अनुयायी निराला जी की समस्त दार्शनिक, आध्यात्मिक एवं रहस्य की मान्यताओं के पीछे उनका वैदान्तिक एवं औपनिषदिक स्वर ही प्रबल रहा है। अपने प्राचीन, सनातन धर्म एवं संस्कृति के प्रति असीम श्रद्धा, दर्शन के प्रति अनुराग, वेद-उपनिषद की सरस वाणी का अनुशीलन और रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, शंकराचार्य जैसे महापुरुषों के आदर्शों का का अनुकरण आदि ने कवि की जीवन दृष्टि एवं साधना के चिंतन को भारतीय सनातन-शाश्वत आलोक प्रदान किया। जिसके फलस्वरूप उनके गीतों में भक्ति, प्रार्थना के करुणा विगलित स्वर एवं अध्यात्म दर्शन की उदाŸा पीठिका निर्मित हुई है।
अतः स्पष्ट है कि निराला जी का धार्मिक चिंतन उनके काव्य में व्यावहारिक यथार्थवादी मानवीय संवेदना से युक्त, आध्यात्मिक तथा विशुद्ध वेदान्तिक दर्शन दानों ही स्वरूपों के साथ विद्यमान है।
निराला जी धार्मिक चिंतन में भाव प्रधान, प्रार्थना एवं भक्ति के गीत हैं, तो बौद्धिक चिंतन प्रधान, आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं रहस्य की भावना से युक्त गीत भी हैं। निराला जी की इस धार्मिक भावना की स्थितियों को क्रमशः ऐसे भी रखा जा सकता है।
                 
 धार्मिक चिन्तन
भावनात्मक                   
बौद्धिक
भक्ति और प्रार्थना परक गीत             
आध्यात्मिक या दार्शनिक     
रहस्यवादी गीत

निराला के धार्मिक चिंतन के इस वैविध्यपूर्ण स्वरूप का क्रमशः विवेचन निम्नलिखित प्रकार से है।

(अ) भक्ति या प्रार्थना-

निराला जी के गीतिकाव्य के एक बहुत बड़े भाग में भक्ति का स्वर पर्याप्त भास्वर और मुखर है। भारत भूमि तो सनातन काल से ही धर्म, दर्शन और भगवद्भक्ति का प्रचार रहा है। फिर अपने जीवन और समाज दोनों से ही आजीवन दुख का सहभागी होकर रहने वाला कवि निराला का भक्ति के प्रति आकर्षण स्वाभाविक ही है। छायावादी कवियों में निराला जी एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनमें भगवद्भक्ति के इतने पवित्र एवं उच्छल भाव चित्र मिलते हैं।
महाप्राण निराला जीवन के वैषम्य से टूट अवश्य गये पर जीवन की भौतिक आँधियों में डरे नहीं हैं, झुके नहीं हैं। क्षीण तन, भग्न मन होकर, सम्बन्धियों के साथ छोड़ देने पर ही कवि प्रभु की शरण में आते हैं-1
दूरित दूर करो नाथ, अशरण हूँ गहो हाथ।
हार गया जीवन रण, छोड़ गये साथी जन,
जब तक शत मोह जाल, घेर रहे हैं कराल-
जीवन के विपुल व्याल, मुक्त करो विश्वनाथ।1
निराला जी अपने जीवन की परिणति अंततः भक्ति में ही स्वीकार करते है क्योंकि आवागमन के अनेक जीवन चक्रों में घूमने वाले मानव के लिये भक्ति ही सर्वाधिक सम्भव है-
मरा हूँ हजार मरण
पाई तब चरण-शरण।
निराला जी के प्रार्थना गीतों में कोमल और संवेदनशील भावनाओं के भक्ति हृदय की पुकार है। निराला जी के इन प्रार्थना गीतों का सूक्ष्म अवलोकन करने पर इन गीतों में भक्ति का क्रम दिखाई देता है। प्रारम्भिक भक्ति गीतों में अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रार्थना है। उसके बाद करुणा से संवेदनशील विनत माथ कवि की मुक्ति याचना का स्वर है। शरणागत की शरण में जाने के लिये कवि का आत्म निवेदन है और अंतिम रूप में प्रभु से मुक्ति की कामना है। तिमिर से प्रकाश की आकांक्षा का यह प्रयास परिमल, गीतिका, अर्चना और आराधना तक बराबर जारी रहता है। इसीलिये कवि अपने परमप्रिय का आवाहन करते हैं-
मेरे प्राणों में आओ
शत शत शिथिल भावनाओं के
उर के तार सजा जाओ।3
अपने परम श्रेष्ठ के मिलन में कभी-कभी चंचल मन अवरोधक बन जाता है अतः अपने चंचल मन को संयमित करने की प्रार्थना निराला जी अपनी ज्योतिर्मय शक्ति से करते हैं।
मन चंचल ना करो।
प्रतिपल अंचल से पुलकित कर
केवल हरो, हरो ।
कुटिल जीवन गति सांसारिक अंधकार में फँसकर रह गई है। यह अंधकार उस ज्योतिर्मय निरंजन के आशीर्वाद के प्रकाश से ही दूर हो सकता है जिसकी चमत्कृत ज्योति रश्मियों में सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है। कवि प्रार्थना करते हैं-
जीवन की गति कुटिल अंधतम जाल,
फँस जाता हूँ तुम्हें नहीं पाता हूँ प्रिय
जगमग जग में पग-पग एक निरंजन आशीर्वाद,
जहाँ नहीं कोई भय वाधा, कोई वाद-विवाद।
मुझे फेर दो प्रभु, हुर दो
इन नयनों में भूला भोर।1
कवि का स्पष्ट कथन है कि संसार के अंध तम में घिरे मेरे कथन को सुन, व्यथित मन से कपोलों पर ठुलक आये वेदना के अश्रुकणों को हे ज्योतिर्मय महाप्रभु तुम ही पोंछ लेते हो और मेरे अंधकार से परिव्याप्त जीवन में नव प्रभात भर देते हो।
नैराश्य जड़ता, आत्मक्षय, दैन्य के कारुणिक अंधकार हे ज्योतिर्मय महाशक्ति आप ही हँसकर मेरा पथ आलोकित कर सकती हो। शक्ति के इस आवाहन में कवि सर्वाधिक प्रार्थना प्रकाश पुंज, तिमिर वारण सूर्य से करते हैं-
सविते कविता को यह वर दो,
हृदय निकेतन स्वर मय कर दो-
तिमिर दारण मिहिर बरसो,
ज्योति के कर अंध कारा-
गार जग का सजग वर दो।
इस ज्योतिर्मय महाशक्ति से मुक्ति की प्रार्थना कवि केवल अपने लिये ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव को अपने साथ लिये है। कवि की यह प्रार्थना सार्वजनिकता की ओर सदा उन्मुख है। इसीलिये माता के आदेश पर वह जीवन का अवलम्ब (सेवा) मान लेते हैं।
जीवन का अवलम्ब है सेवा
माता का आदेश यही।
निराला जी की भक्ति में शक्ति का स्वरूप ‘कबीर’ की तरह मातृ शक्ति के रूप में अधिक है। इसका कारण बंग भूमि के साथ अधिक सान्निध्य का रहना है जहाँ मातृ शक्ति पूजन ही प्रमुख है।1 इसी प्रभाववश निराला ने शक्ति का ग्रहण नारी भाव में किया है। उनकी शक्ति निराकार, निरंजन नित्य एवं विराट रूप है। “कवि अपने विराट काव्य सृजन की उर्वरा भूमि पर मातृ भक्ति के पुष्प लगाता आया है।” इस महाशक्ति में कवि की आस्था है कि उस एक तŸव में ही भक्ति का सम्पूर्ण वैभव निहित है इसीलिये कवि भाव विभोर होकर पुकार उठते हैं-
तुम्हीं रहो, मिल जाये जगत तब
एक तŸव में, ज्यों भव-कलरव
ज्योत्सनामपि, तम को किरणासव
मिला मिला उर लो।