05 August 2018

निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना

 निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना
       
                              -डा० साधना शुक्ला

          -1-

कवि निराला के गीतिकाव्य में सांस्कृतिक चेतना अपने उदात्त रूप में है। इस सांस्कृतिक चेतना में धर्म, दर्शन, और समाज प्राचीन इतिहास का गौरवपूर्ण सांस्कृतिक भावबोध सम्मिलित है। मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में निराला जी आदर्श भारतीय संस्कृति के पुजारी हैं। अपने गीतों के माध्यम से वह यही बात बार-बार कहते हैं।
निराला जी की सांस्कृतिक चेतना के अंतर्गत मानवीय मूल्य, समाज, अध्यात्म, भक्ति, प्रेम, सौन्दर्य तथा मानवीय संवेदना से युक्त करुणा आदि को निराला जी ने किस दृष्टिकोण से प्रतिस्थापित करना चाहा है। साथ ही बदलते हुये परिवेश और बदलती हुई मान्यताओं के इस युग में निराला जी ने अपने भाव और चिन्तन के द्वारा किस आदर्श पृष्ठभूमि में भारतीय संस्कृति का नवनिर्माण करना चाहा है। इन्हीं तथ्यों का अध्ययन हम इस अध्याय में प्रस्तुत करेंगे।

1. मानवीय मूल्य
मानव द्वारा समाज की व्यवस्था को स्थापित्व प्रदान करने के लिये बनाये गये आदर्श-नियम या प्रतिमान ही मानवीय मूल्यों की संरचना करते हैं। सामाजिक नियमों के आधार पर ही हम मानवीय व्यवहार को उचित-अनुचित ठहरा सकते हैं। “सामाजिक जीवन केा व्यवस्थित बनाये रखने के लिये मानव अनेक प्रथाओं, रीति-रिवाजों, परिपाटियों, रूढ़ियों एवं कानून आदि की रचना करता है, जिन्हें हम सामाजिक प्रतिमान कहते हैं।”1 प्रो0 डेविस लिखते हैं- कि “आदर्श नियमों के अभाव में मानव समाज की कल्पना भी नहीं की जा सकती।”2 इन्हीं सामाजिक नियमों के पालन में मनुष्य अपने जीवन के कुछ मूल्य निर्धारित करता है जिनके आधार पर ही वह अपने कर्तव्य तथा दायित्वों का पालन करता है। ये मानवीय मूल्य जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में पाये जाते हैं। इनकी संख्या भी अनगिनत होती है।3 फिर कुछ ऐसे मानवीय मूल्य हैं जो हमारे जीवन के पथ-प्रदर्शक बनते हैं। इनके अभाव में हमारा जीवन अव्यवस्थित हो जाता है। ये मूल्य हैं- सर्वभूत हित की भावना, विश्वबन्धुत्व, करुणा, मैत्री, अहिंसा, समरसता तथा मानवीय संवेदना से युक्त कल्याणमयी भावनाएँ आदि।
छायावादी काव्य में इन मानवीय मूल्यों को व्यापक धरातल मिला है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं कि छायावाद पूर्णतया मानवीय भूमि पर प्रतिष्ठित है। उसकी प्रधान प्रवृत्ति है मानवीय दृष्टिकोण। उच्च से उच्च मानवीय मूल्यों की सुन्दरतम और विशद स्थापना इस छायावादी काव्य में निरन्तर परिलक्षित होती है। छायावाद मानवीय मूल्यों की गहनतम अनुभूतियों का काव्य है। “आधुनिक युग की अर्जित राशि को (विश्व मानवतावाद तथा विज्ञानवाद का) यदि आत्मिक धरातल पर स्वीकृति का स्वरूप कहीं मिला है तो छायावादी काव्य में । ...........मानवता की स्थाई अर्जित राशि को सामाजिक रूप में रखकर उसे व्यक्तिवादी दृष्टि से देखा गया। लोकमंगल की अन्तर्राष्ट्रीय सीमाओं में नूतन शक्ति का संचार हुआ।”1
19 वीं शताब्दी में पश्चिम में चलने वाला विश्व मानववाद छायावादी कवियों की लेखनी से भारतीय मानववाद, अहिंसा, करुणा, समरसता आदि औदात्य भावों को निहित कर चला। सर्वहित की भावना सह-अस्तित्व, विश्वबन्धुत्व, करुणा, मैत्री तथा सामान्य मानव की पीड़ा का सहज समावेश छायावादी कविता में मानवीय मूल्यों को प्रतिष्ठित करने में सहायक बने।
श्री हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में - “मानवीय दृष्टि के कवि की कल्पना अनुभूति और चिन्तन के भीतर से निकली हुई वैयक्तिक अनुभूतियों के आवेग की स्वतः समुच्छित अभिव्यक्ति बिना किसी आयास के और बिना किसी प्रयत्न के स्वयं निकल पड़ा हुआ भावस्रोत- ही छायावादी कविता का प्राण है।”3 प्रसाद, पंत और निराला का समस्त काव्य विश्व चिन्तन और विश्व संस्कृति के सन्दर्भों में मानवीय मूल्यों का सशक्त परिचायक है।
मानवीय मूल्यों के सन्दर्भ में जहाँ तक निराला के काव्य का प्रश्न है उनका सम्पूर्ण काव्य सामाजिक जीवन के वैषम्य का काव्य है। मानवीय सहानुभूति का काव्य है। भ्रष्ट समाज के ठेकेदारों, रूढ़ियों, विषमताओं पर बार-बार प्रहार मानवीय मूल्यों की पुनर्स्थापना में निराला की साहित्य साधना का अथक प्रतिफल है। निराला जी का काव्य कोमल कलिका को मधुमय निद्रा में सुलाने मात्र का प्रयास नहीं है बल्कि मृतादर्शों मे जकड़े निष्क्रिय व्यक्तियों और कुरीतियों में जकड़े समाज में मानवीय मूल्यों की पुनसर््थापना में तिमिर से पार जाने और सत्य का द्वार4 देखने का प्रयास है। नवीनतम मानवीय मूल्यों की स्थापना में पुरातन जीर्ण-शीर्ण रूढ़ियों को जला देने का आह्वान है-
जला दे जीर्ण-शीर्ण प्राचीन
क्या करूँगा तन जीवन-हीन?
माँ, तू भरत की पृथ्वी पर
उतर रूपमय माया तन धर
देवव्रत नरवर पैदा कर,
फैला शक्ति नवीन।1
निराला जी का गीतिकाव्य दीन, हीन, निर्बल किसानों का, श्रमिकों का सम्बल बनकर आत्म विश्वास के साथ प्रगतिशील चरण बढ़ाने को प्रेरित करता है। समाज में शोषित दीन, हीन, दरिद्र वर्ग को देखकर कवि ईश्वर तक से प्रार्थना कर बैठता है-
दलित जन पर करो करुणा,
दीनता पर उतर आये प्रभु तुम्हारी शक्ति वरुणा।2
निराला जी का यह प्रयास समग्र मानवता के प्रति मंगल कामना है, विश्व चेतना का प्रतीक है। निराला जी स्वयं कहते हैं- “कवि को युग-चेतना की अनुभूति के बल पर सार्वभैाम विचारों को लोक-मंगलकारी रूप में व्यक्त करना चाहिये।”3
निराला गीतिकाव्य में मानवीय मूल्यों के चित्रण पर रामविलास शर्मा जी कहते हैं- “उनके साहित्य के केन्द्र में वह मनुष्य है जो श्रम करता है, सम्पŸिा और सुख-साधनों से वंचित है, विषम परिस्थितियों से जूझता है गिरता है फिर आगे बढ़ता है। निराला हिन्दी-साहित्य में मनुष्य की कर्मठता, वीरता, धैर्य, आंतरिक द्वन्द्व, उसकी अपार जिजीविषा के चित्रकार हैं। निराला का मानवतावाद हिन्दी साहित्य में उनके अभ्युदयकाल से आरम्भ होता है और अन्तिम दौर तक निरन्तर गहरा होता जाता है।”4
इस तरह निराला के वैचारिक द्वन्द्व का परिणाम गीतों में मानवीय मूल्यों की स्थापना बनकर उभरा है। यह निराला काव्य की प्रमुख विशेषता है। निराला का काव्य मानवीय संवेदना से परिपूर्ण चेतना और प्रेरणा का काव्य है। समाज में व्याप्त अंधविश्वास, जीर्ण-शीर्ण परंपरा के प्रति असन्तोष सामान्य जन की स्वतंत्रता और समानता का स्वर उनके काव्य में मुखरित है। तभी तो कवि ‘अमीरों की हवेली’
को किसानो की पाठशाला बनाना चाहता है।5 समाज की दीन-हीन दुर्बल मजदूरिन को इलाहाबाद के पथ पर पत्थर तोड़ते देख कवि गहरी संवेदना से भर उठता है।1 यह वही कवि निराला है जो जूही की कली, शेफालिका के सौंदर्य पर भी रीझा था। इस क्षणिक सौंदर्य का आकर्षण आक्रांत मानवता को पाशविकता से मुक्ति का प्रयास भारी पड़ता है। क्योंकि मानवीय संवेदना उनके काव्य में गहरे और गहरे तक विद्यमान है। ‘विप्लवी बादल’ की गर्जना विलास वैभव में रहने वाले सुन्दर अट्टालिकाओं में भोग और ऐश्वर्य में डूबने वालों का दिल दहलाने के लिये है।2 ‘राम की शक्ति पूजा’ के नायक मर्यादा पुरुषोŸाम राम तुलसीदास के राम की तरह नर रूप धारण कर ब्रह्म की लीला के खेल नहीं खेलते हैं बल्कि सामान्य मानव की तरह पीड़ा और दुःख का अनुभव करते हैं, हताश होते हैं-
धिक् जीवन को जो पाता ही आया विरोध,
धिक् साधन, जिसके लिये सदा ही किया शोध।
जानकी! हाय उद्धार प्रिया का हो न सका,
वह एक और मन रहा राम का जो न थका।3
इसी तरह समस्त काव्य में पीड़ित मानवता के प्रति संवेदना का भाव व्यापक धरातल लिये है। सामान्य मानव के छल, कपट और प्रवंचना की प्रवृŸिा देखकर भी निराला जी विक्षुब्ध हो उठते हैं और इन अमानवीय प्रवृŸिायों से संघर्ष का आह्वान कर- ‘अभी न होगा मेरा अन्त’4 कहकर मानवता के अन्त न होने की बात कह देते हैं।
शोषित, पीड़ित, निर्बल, दीन को देखकर निराला जी जिस संवेदना से भर उठते हैं उससे स्पष्ट है कि वह उसे इस स्थिति में नहीं देखना चाहते हैं-
सह जाते हो
उत्पीड़न की क्रीड़ा सदा निरंकुशनग्न
हृदय तुम्हारा दुर्बल होता भग्न,
अन्तिम आशा के कानों में,
स्पंदित हम सबके प्राणों में,
अपने उर की तप्त व्यथा में,
क्षीण कण्ठ की करुण कथा में,
कह जाते हो
और जगत की ओर ताक कर
दुःख हृदय का क्षोभ त्यागकर
सह जाते हो।5
इसी तरह भिक्षुक,1 विधवा,2 और दीन3 भीख माँगता है अब राह पर,4 आदि गीत निराला जी की मानवीय संवेदना के चर्चित गीतों में से हैं। इन प्रगीतों में निराला दलित जन की पीड़ा पर अतिशय संवेदना से भर करुण हो उठे हैं। समाज की इन अमानवीय विषमताओं को देखते-देखते ‘कुकुरमुŸाा’ में कवि सीधा-सीधा व्यंग्य उस अभिजात्य समाज पर छोड़ते हैं-
अबे ! सुन वे गुलाब--
भूल मत गर पाई खुशबू रंगोआव!
खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट
डाल पर इतराता है केपीटलिष्ट!
कितनो को तूने बनाया गुलाम।5
‘नये पŸो’ गीत संग्रह की ‘प्रेम संगीत’6 ‘कुŸाा भूँकने लगा,7 झींगुर डरकर बोला,8 मँहगू मँहगा रहा,9 राजे ने रखवाली की,10 डिप्टी साहब आये,11 गर्म पकौड़ी12 तथा खून की होली जो खेली,13 आदि गीतों में निराला ने जन सामान्य के जीवन को एक प्रभावशाली स्वर दिया है। शोषित वर्ग उत्पन्न करने वाली सामाजिक व्यवस्था पर तीखा व्यंग्य दिया है- और पीड़ित, शोषित और प्रताड़ित जीवन वाले जन सामान्य के प्रति अपने हृदय की सत्य सहानुभूति व्यक्त की है।
‘रानी और कानी’ कविता में एक कुरूप लड़की की माँ के हृदय की क्या दशा हो सकती है यह निराला जी जानते हैं।
रानी अब हो गई सयानी
बीनती है काड़ती है, कूटती, पीसती है,
डालियों के सीले अपने रूखे हाथों मीसती है,
घर बुहारती है, करकट फेंकती है,
और घड़ों पानी भरती है,
फिर भी माँ का दिल बैठ रहा,
एक चोर घर में पैठा रहा,
सोचती रहती दिन-रात
कानी की शादी की बात
मन मसोस कर वह रहती है।1
मन मसोसकर कानी की माँ इसीलिये रह जाती है कि कोई भी उसकी कुरूपा एक आँख वाली लड़की से विवाह नहीं करेगा। इसी तरह ‘दगा की’ में कवि हमारी अपरिवर्तित सभ्यता पर व्यंग्य कसते हैं। हम चाहे अपने को कितना भी प्रगतिशील कहें, पियानो पर गीत सुनें, वीणा, सुर-बहार बने लेकिन खंजड़ी वहीं जहाँ सदियों पहले थी अर्थात् हमारा जो सामान्य कृषक वर्ग है, वह अभी उसी स्थिति में है जहाँ सभ्यता के आरम्भ में था-
चेहरा पीला पड़ा
रीढ़ झुकी, हाथ जोड़े
आँख का अँधेरा बढ़ा
सैकड़ों सदियाँ गुजरीं
बड़े-बड़े ऋषि आये, मुनि आये, कवि आये,
तरह-तरह की वाणी जनता को दे गये।
मगर खंजड़ी न गई।
दगा की इस सभ्यता ने दगा की।2
सामाजिक जीवन की तरह कवि राष्ट्रीय जीवन में भी आदर्श मानवीय मूल्यों के पोषक हैं। ‘जागो फिर एक बार’3 ‘महाराज शिवाजी का पत्र’4 ‘आवाहन’5 आदि गीतों में निराला जी ऐसे ही आदर्श मानवीय मूल्यों को प्रतिस्थापित करना चाहते हैं-
हैं जो बहादुर समर के,
वे मर कर भी,
माता को बचायेंगे,
शत्रुओं के खून से
धो सके यदि एक भी तुम माँ का दाग,
कितना अनुराग देश वासियों का पाओगे।1
ऐसी युक्ति में कवि स्वाधीनता चाहते हैं। उसके लिये चाहे मृत्यु क्यों ही न मिले। ‘आवाहन’ की श्यामा का मृत्यु से साक्षात्कार, और संघर्ष विशुद्ध मानवीय शक्ति के संचय का द्योतक है।2
आवाहन की श्यामा के लिये रामविलास शर्मा लिखते हैं- “आवाहन की श्यामा मृत्यु का साक्षात्कार करने वाली मानव-शक्ति है।”3

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