04 August 2018

संक्षिप्त परिचय-

सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' ( 21 फरवरी, 1899 - 18अक्टूबर,1961) हिन्दी कविता के छायावादी युग के चार प्रमुख स्तंभों में से एक माने जाते हैं। वे जयशंकर प्रसाद, सुमित्रानंदन पंत और महादेवी वर्मा के साथ हिन्दी साहित्य में छायावाद के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं। उन्होंने कहानियाँ, उपन्यास और निबंध भी लिखे हैं किन्तु उनकी ख्याति विशेष रुप से कविता के कारण ही है।


जीवन परिचय
सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला' का जन्म बंगाल की महिषादल रियासत (जिला मेदिनीपुर) में माघ शुक्ल 11, संवत् 1955 तदनुसार 21 फ़रवरी, सन् 1899 में हुआ था। वसंत पंचमी पर उनका जन्मदिन मनाने की परंपरा 1930 में प्रारंभ हुई। उनका जन्म मंगलवार को हुआ था। जन्म-कुण्डली बनाने वाले पंडित के कहने से उनका नाम सुर्जकुमार रखा गया। उनके पिता पंडित रामसहाय तिवारी उन्नाव (बैसवाड़ा) के रहने वाले थे और महिषादल में सिपाही की नौकरी करते थे। वे मूल रूप से उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के गढ़ाकोला नामक गाँव के निवासी थे।

निराला की शिक्षा हाई स्कूल तक हुई। बाद में हिन्दी संस्कृत और बाङ्ला का स्वतंत्र अध्ययन किया। पिता की छोटी-सी नौकरी की असुविधाओं और मान-अपमान का परिचय निराला को आरम्भ में ही प्राप्त हुआ। उन्होंने दलित-शोषित किसान के साथ हमदर्दी का संस्कार अपने अबोध मन से ही अर्जित किया। तीन वर्ष की अवस्था में माता का और बीस वर्ष का होते-होते पिता का देहांत हो गया। अपने बच्चों के अलावा संयुक्त परिवार का भी बोझ निराला पर पड़ा। पहले महायुद्ध के बाद जो महामारी फैली उसमें न सिर्फ पत्नी मनोहरा देवी का, बल्कि चाचा, भाई और भाभी का भी देहांत हो गया। शेष कुनबे का बोझ उठाने में महिषादल की नौकरी अपर्याप्त थी। इसके बाद का उनका सारा जीवन आर्थिक-संघर्ष में बीता। निराला के जीवन की सबसे विशेष बात यह है कि कठिन से कठिन परिस्थितियों में भी उन्होंने सिद्धांत त्यागकर समझौते का रास्ता नहीं अपनाया, संघर्ष का साहस नहीं गंवाया। जीवन का उत्तरार्द्ध इलाहाबाद में बीता। वहीं दारागंज मुहल्ले में स्थित रायसाहब की विशाल कोठी के ठीक पीछे बने एक कमरे में 15 अक्टूबर 1961  को उन्होंने अपनी इहलीला समाप्त की।

कार्यक्षेत्र
सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की पहली नियुक्ति महिषादल राज्य में ही हुई। उन्होंने 1918 से 1922 तक यह नौकरी की। उसके बाद संपादन, स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य की ओर प्रवृत्त हुए। 1922 से 1923 के दौरान कोलकाता से प्रकाशित 'समन्वय' का संपादन किया, 1923 के अगस्त से मतवाला के संपादक मंडल में कार्य किया। इसके बाद लखनऊ में गंगा पुस्तक माला कार्यालय में उनकी नियुक्ति हुई जहाँ वे संस्था की मासिक पत्रिका सुधा से 1935 के मध्य तक संबद्ध रहे। 1935 से 1940 तक का कुछ समय उन्होंने लखनऊ में भी बिताया। इसके बाद 1942 से मृत्यु पर्यन्त इलाहाबाद में रह कर स्वतंत्र लेखन और अनुवाद कार्य किया। उनकी पहली कविता जन्मभूमि प्रभा नामक मासिक पत्र में जून 1920 में, पहला कविता संग्रह 1923 में अनामिका नाम से, तथा पहला निबंध बंग भाषा का उच्चारण अक्टूबर 1920 में मासिक पत्रिका सरस्वती में प्रकाशित हुआ।

अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग उन्होंने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। 1930 में प्रकाशित अपने काव्य संग्रह परिमल की भूमिका में वे लिखते हैं-

मनुष्यों की मुक्ति की तरह कविता की भी मुक्ति होती है। मनुष्यों की मुक्ति कर्म के बंधन से छुटकारा पाना है और कविता की मुक्ति छन्दों के शासन से अलग हो जाना है। जिस तरह मुक्त मनुष्य कभी किसी तरह दूसरों के प्रतिकूल आचरण नहीं करता, उसके तमाम कार्य औरों को प्रसन्न करने के लिए होते हैं फिर भी स्वतंत्र। इसी तरह कविता का भी हाल है।
लेखनकार्य
निराला ने 1920 ई० के आसपास से लेखन कार्य आरंभ किया। उनकी पहली रचना 'जन्मभूमि' पर लिखा गया एक गीत था।[4] लंबे समय तक निराला की प्रथम रचना के रूप में प्रसिद्ध 'जूही की कली' शीर्षक कविता, जिसका रचनाकाल निराला ने स्वयं 1916 ई० बतलाया था

प्रकाशित कृतियाँ-
काव्यसंग्रह
अनामिका (1923)
परिमल (1930)
गीतिका (1936)
अनामिका (द्वितीय) (1939)[8] (इसी संग्रह में सरोज स्मृति और राम की शक्तिपूजा जैसी प्रसिद्ध कविताओं का संकलन है।
तुलसीदास (1939)[8]
कुकुरमुत्ता (1942)
अणिमा (1943)
बेला (1946)
नये पत्ते (1946)
अर्चना(1950)
आराधना 91953)
गीत कुंज (1954)
सांध्य काकली
अपरा (संचयन)
उपन्यास
अप्सरा (1931)
अलका (1933)
प्रभावती (1936)
निरुपमा (1936)
कुल्ली भाट (1938-39)
बिल्लेसुर बकरिहा (1942)
चोटी की पकड़ (1946)
काले कारनामे (1950) {अपूर्ण}
चमेली (अपूर्ण)
इन्दुलेखा (अपूर्ण)
कहानी संग्रह
लिली (1934)
सखी (1935)
सुकुल की बीवी (1941)
चतुरी चमार (1945) ['सखी' संग्रह की कहानियों का ही इस नये नाम से पुनर्प्रकाशन।]
देवी (1948) [यह संग्रह वस्तुतः पूर्व प्रकाशित संग्रहों से संचयन है। इसमें एकमात्र नयी कहानी 'जान की !' संकलित है।]
निबन्ध-आलोचना
रवीन्द्र कविता कानन (1929)
प्रबंध पद्म (1934)
प्रबंध प्रतिमा (1940)
चाबुक (1942)
चयन (1957)
संग्रह (1963)[9]
पुराण कथा
महाभारत (1939)
रामायण की अन्तर्कथाएँ (1956)
बालोपयोगी साहित्य
भक्त ध्रुव (1926)
भक्त प्रहलाद (1926)
भीष्म (1926)
महाराणा प्रताप (1927)
सीखभरी कहानियाँ (ईसप की नीतिकथाएँ) [1969][10]
अनुवाद
रामचरितमानस (विनय-भाग)-1948 (खड़ीबोली हिन्दी में पद्यानुवाद)
आनंद मठ (बाङ्ला से गद्यानुवाद)
विष वृक्ष
कृष्णकांत का वसीयतनामा
कपालकुंडला
दुर्गेश नन्दिनी
राज सिंह
राजरानी
देवी चौधरानी
युगलांगुलीय
चन्द्रशेखर
रजनी
श्रीरामकृष्णवचनामृत (तीन खण्डों में)
परिव्राजक
भारत में विवेकानंद
राजयोग (अंशानुवाद)[11]
रचनावली
निराला रचनावली नाम से 8 खण्डों में पूर्व प्रकाशित एवं अप्रकाशित सम्पूर्ण रचनाओं का सुनियोजित प्रकाशन (प्रथम संस्करण-1983)

समालोचना

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सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की काव्यकला की सबसे बड़ी विशेषता है चित्रण-कौशल। आंतरिक भाव हो या बाह्य जगत के दृश्य-रूप, संगीतात्मक ध्वनियां हो या रंग और गंध, सजीव चरित्र हों या प्राकृतिक दृश्य, सभी अलग-अलग लगनेवाले तत्त्वों को घुला-मिलाकर निराला ऐसा जीवंत चित्र उपस्थित करते हैं कि पढ़ने वाला उन चित्रों के माध्यम से ही निराला के मर्म तक पहुँच सकता है। निराला के चित्रों में उनका भावबोध ही नहीं, उनका चिंतन भी समाहित रहता है। इसलिए उनकी बहुत-सी कविताओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो जाती है। इस नए चित्रण-कौशल और दार्शनिक गहराई के कारण अक्सर निराला की कविताऐं कुछ जटिल हो जाती हैं, जिसे न समझने के नाते विचारक लोग उन पर दुरूहता आदि का आरोप लगाते हैं। उनके किसान-बोध ने ही उन्हें छायावाद की भूमि से आगे बढ़कर यथार्थवाद की नई भूमि निर्मित करने की प्रेरणा दी। विशेष स्थितियों, चरित्रों और दृश्यों को देखते हुए उनके मर्म को पहचानना और उन विशिष्ट वस्तुओं को ही चित्रण का विषय बनाना, निराला के यथार्थवाद की एक उल्लेखनीय विशेषता है। निराला पर अध्यात्मवाद और रहस्यवाद जैसी जीवन-विमुख प्रवृत्तियों का भी असर है। इस असर के चलते वे बहुत बार चमत्कारों से विजय प्राप्त करने और संघर्षों का अंत करने का सपना देखते हैं। निराला की शक्ति यह है कि वे चमत्कार के भरोसे अकर्मण्य नहीं बैठ जाते और संघर्ष की वास्तविक चुनौती से आँखें नहीं चुराते। कहीं-कहीं रहस्यवाद के फेर में निराला वास्तविक जीवन-अनुभवों के विपरीत चलते हैं। हर ओर प्रकाश फैला है, जीवन आलोकमय महासागर में डूब गया है, इत्यादि ऐसी ही बातें हैं। लेकिन यह रहस्यवाद निराला के भावबोध में स्थायी नहीं रहता, वह क्षणभंगुर ही साबित होता है। अनेक बार निराला शब्दों, ध्वनियों आदि को लेकर खिलवाड़ करते हैं। इन खिलवाड़ों को कला की संज्ञा देना कठिन काम है। लेकिन सामान्यत: वे इन खिलवाड़ों के माध्यम से बड़े चमत्कारपूर्ण कलात्मक प्रयोग करते हैं। इन प्रयोगों की विशेषता यह है कि वे विषय या भाव को अधिक प्रभावशाली रूप में व्यक्त करने में सहायक होते हैं। निराला के प्रयोगों में एक विशेष प्रकार के साहस और सजगता के दर्शन होते हैं। यह साहस और सजगता ही निराला को अपने युग के कवियों में अलग और विशिष्ट बनाती है।

सन्दर्भ
 निराला की साहित्य साधना, प्रथम खण्ड (जीवन चरित), रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन प्रा०लि०, नयी दिल्ली, संस्करण-२००२, पृष्ठ-१७ एवं ४४३. [पृष्ठ-१७ पर निराला की जन्मतिथि के संदर्भ में अंग्रेजी तारीख देने के क्रम में मुद्रण-त्रुटि से २१ फरवरी के बदले २९ फरवरी मुद्रित हो गया है जिसका स्पष्टीकरण संवत् एवं तिथि के अनुसार अंग्रेजी तारीख बनाने के अतिरिक्त इसी पुस्तक के पृष्ठ संख्या-४४३ पर उल्लिखित तथ्यों के अनुसार भी आसानी से हो जाता है। पृष्ठ संख्या-४४३ पर निराला के जन्म के संदर्भ में पर्याप्त विचार-विमर्श के पश्चात् उनकी उक्त जन्मतिथि निर्धारित की गयी है। अतः किन्ही व्यक्ति को पूर्वाग्रहवश किसी अन्य तिथि को निराला की जन्मतिथि मानकर स्वयं या अन्य लोगों को भ्रमित करने की दिशा में कदम नहीं बढ़ाना चाहिए।]
 "निराला जयंती". ऋषभ. अभिगमन तिथि: २००८.
 हिन्दी साहित्य कोश भाग-२(नामवाची शब्दावली)
 निराला की साहित्य साधना, प्रथम खण्ड (जीवन चरित), रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन प्रा०लि०, नयी दिल्ली, संस्करण-2002, पृ०-39-40.
 निराला रचनावली, खण्ड-1, सं०-नन्दकिशोर नवल, राजकमल प्रकाशन प्रा०लि०, नयी दिल्ली, संस्करण-1998, पृ०-19.
 निराला की साहित्य साधना, प्रथम खण्ड (जीवन चरित), रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन प्रा०लि०, नयी दिल्ली, संस्करण-2002, पृ०-60-61 तथा पृ०-440-441.
 निराला रचनावली, खण्ड-1, पूर्ववत्, पृ०-42.
 निराला रचनावली, खण्ड-1, पूर्ववत्, पृ०-20.
 निराला रचनावली, खण्ड-5, पूर्ववत्, पृ०-14.
 निराला रचनावली, खण्ड-7, पूर्ववत्, पृ०-15.
 निराला रचनावली, खण्ड-1, पूर्ववत्, पृष्ठ-16.

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