19 August 2018

निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना

निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना     

                              -डा० साधना शुक्ला

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जीवन में कदम-कदम पर लगने वाली ठोकरों से कवि मन की निराशा जन्य स्थिति उन्हें भक्त कवि तुलसी की तरह दैन्य-विनय और आत्मनिवेदन की  ओर मोड़ देती है। लेकिन निराला इस आत्मनिवेदन और विनय में अकेले ही नहीं सम्पूर्ण मानवता उनके साथ है क्योंकि भक्त को अपने इष्ट से कुछ प्राप्ति में अपने निहित स्वार्थों को छोड़कर ऊपर उठना अनिवार्य है।

  दलित जन पर करो करुणा

  दीनता पर उतर आये

  प्रभु तुम्हारी शक्ति अरुणा।

  ’ ’ ’ ’

  भव -अर्पण की तरुणी तरुणा

  बरसी तव नयनों से करुणा।

  ’ ’ ’ ’

  नर जीवन के स्वार्थ सकल

  बलि हों तेरे चरणों पर माँ

  मेरे श्रम संचित सब फल।

 भक्त हृदय के अनुरूप ही कवि भक्त की अनन्यता में दुखहन्ती जगजननी से प्रसन्न चित्त मृत्यु के वरण की याचना करते हैं। कवि चाहते हैं कि जो भी बंधन भक्ति में बाधक है, मैं उनसे मुक्त हो जाऊँ-

  दे मैं करूँ वरण

  जननि दुखहरण पद-राग रज्जित मरण।

  भीरुता के बँधे पाश सब छिन्न हों,

  मार्ग के रोध विश्वास से भिन्न हों,

  आज्ञा, जननि, दिवस-निशि करूँ अनुशरण।1

 विनम्र भक्त ही अपने प्राप्य को प्राप्त कर सकता है ऐसा कवि का विश्वास है। निराला की इस मातृभक्ति में जननि, माँ जैसे सम्बोधन पर्याप्त हैं। माँ के प्रति असीम श्रृद्धा से प्राणों को सार्थक करने की बात अघिक हृदयग्राही है।

  सार्थक करो प्राण

  जननि दुख-अवनि से

  द्वरित से दो त्राण।

 निराला के इन प्रार्थना गीतों में कवि हृदय की आत्म जर्जरता अधिक व्यक्त हुई है। माँ की शरण में कवि अपने जीवन की समस्त-व्यथा से मुक्ति चाहते हैं-

  माँ अपने आलोक निहारो,

  नर को नरक त्रास से वारो।

 मातृशक्ति के अतिरिक्त निराला जी की भक्ति में करुणावतार प्रभु भी इष्टरूप में समाहित है। जिन्होंने जीवन से हताश कवि को पूर्ण भक्त बना दिया। संसार सागर से जीवन नौका को पार ले जाने ‘खेवा’ बढ़ जाने वाले प्रभु से प्रार्थना है-

  डोलती नाव, प्रखर है धार

  सँभालो जीवन-खेवनहार।

 मन की प्रत्येक समस्या का समाधान करने वाले विश्वाधार ही इस भव से पार लगा सकते हैं-

  भव सागर से पार करो हे

  गह्वर से उद्धार करो हे।

  ’ ’ ’ ’

  मन का समाहार, करो विश्वाधार

  कोई नहीं और एक तुम्हीं हो ठौर

  दूर सब जन पौर, भव से करो पार।1

 इसीलिये कवि अपने प्रभु को आँखों में हँसने और मन में बसने तथा दोनों को थाम लेने की प्रार्थना करते हैं।2 मानव के व्यथित मन को शान्ति देने वाले समाज में फैले अविश्वास को दूर करने वाले, स्वार्थ में लिप्त चंचल मन वाले मनुष्य को राह पर लाने वाले प्रभु से यह भक्ति निराला को अद्वैत दर्शन से प्राप्त हुई है। परम शक्ति से भक्ति में कवि ने नाम स्मरण भी किया है-

  कृष्ण-कृष्ण राम-राम

  जपे हैं हजार नाम।

  ’ ’ ’

  राम के हुये तो बने काम

  सँवरे सारे धन, धान, धाम।

  ’ ’ ’ ’

  जप शिव, जप विष्णु-विष्णु

  शंकर, जप कृष्ण राम

  शत विध, नमान्नबन्धु

  बान्धव हे निराकार ।

 नाम स्मरण की बात कवि अवश्य कहते हैं पर कर्म की भावना कुंठित नहीं होने देते। जीवन नश्वर है, ब्रह्म शाश्वत है यह स्मरण आते ही जीवन समर के संघर्षों से हारता मन ईश्वर की शरण में आ जाता है-

  विपदा हरण हार हरि हे करो पार

  प्रणव से जो कुछ चराचर तुम्हीं सार !

  तुम्हीं अविनाशी विहग व्योम के देश

  परिमित अपरिमाण में तुम हुये शेष।

  ’ ’ ’ ’ ’

  मूर्Ÿा हो या स्फूर्त तुम कुछ न आया

  पदों पर दण्ड प्रणाम से सम्भार।

 निराला की भक्ति यदि भाव प्रधान है तो उपदेश प्रधान भी है और मानव के कल्याण की कामना से अभिभूत भी है। निराला की भक्ति में समष्टि कल्याण की भावना कहीं लुप्त नहीं होती है। ईश्वर से कवि का आत्म निवेदन में समस्त विश्व की संवेदना को अपने साथ समेट कर चलते हैं-

  द्वार पर तुम्हारे

  खड़ा है विश्व

  कर पसारे।

 इस तरह हम देखते हैं कि निराला की भक्ति ज्ञान और कर्म दोनों से ही युक्त है। सत्कर्म का विवेश मानवता की व्याप्ति के साथ प्रभु में आस्था कवि की भक्ति का मुख्य आधार है।



(ब) अध्यात्म व दर्शन-



 निराला जी के गीतिकाव्य में आध्यात्मिक चिंतन सुदृढ़ आधार के साथ स्थित है। मानवीय दृष्टिकोण से युक्त निराला जी का अध्यात्म-दर्शन उनका नितान्त मौलिक चिंतन है। इसीलिये निराला जी को भारतीय वेदान्त दर्शन का कवि कहा गया है।2 निराला जी के आध्यात्मिक विचारों पर बंगाल के परिवेश स्वामी रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद के अद्वैतवाद का पर्याप्त प्रभाव पड़ा है।3 यह अद्वैत साधना सहजानुभूति और अध्यात्म पर आधारित थी। धर्म इनके लिये आनंद था। समाधि इनकी पूजा विश्वास और जागृत उसके सोपान थे, उत्थान और मुक्त चरम प्राप्त।4 भारतीय वेदान्त दर्शन के भक्त ज्ञान, कर्म और योग तथा शंकराचार्य स्वामी रामकृष्ण परमहंस और विवेकानंद जैसे विद्वानों के प्रभाव से निराला जी के          अध्यात्मिक विचारों का स्वरूप निर्मित हुआ है।

 अद्वैतवाद आत्मा और परमात्मा में अभिन्नता देखता है। परमात्मा सर्व व्याप्त, सत्य, अनादि और अविनाशी है जिसकी क्रीड़ाभूमि यह सम्पूर्ण चराचर सृष्टि है। आत्मा या जीव परमात्मा का ही अंश है। आत्मा माया के वशीभूत हो, सत्य से विमुख हो सांसारिक आवागमन के चक्र में फँसती है और इस मायाभूत संसार में विभिन्न कष्ट उठाती है। ब्रह्मविद्या आत्मा को सत्य से परिचित कराकर परमात्मा से मिलन कराती है तभी जीव को यह ज्ञान होता है कि ब्रह्म सत्य है जगत मिथ्या है। यही अद्वैतवाद है इसी का प्रतिपादन आदि शंकराचार्य ने किया था। ब्रह्म ज्ञान के लिये ज्ञान, भक्ति और कर्म ये तीन प्रमुख साधन हैं। निराला जी शंकराचार्य के इस अद्वैत दर्शन से पूर्ण रूपेण प्रभावित थे। यह बात अनेक समालोचकों ने स्वीकार की है।1

 निराला जी का यह अध्यात्म चिंतन उनके आरम्भिक गीतों से ही प्रारम्भ हो जाता है। जूही की कली, अंध विश्वास, पंचवटी प्रसंग, तुम और मैं, जागरण, अध्यात्म फल, परिमल के गीतों से स्पष्ट है।

 परमतत्व या ब्रह्म जो कि मानवीय गुणों से बहुत ऊपर है निराला जी का सबसे प्रिय विषय है। निराला जी ने अपने इस परम चेतन, और अविनाशी को निःस्पृह, निःस्व, निरामय, निर्मम, निराकांक्ष, निर्लेप, निरुद्गम, निर्भय, निराकार निःसम, शम आदि विविध रूपों में व्यक्त किया है।9 वेद की ऋचाओं की तरह निराला भी एक मित्र की तरह उस असीम का सान्निध्य चाहते हैं-

  बैठ ले कुछ देर,

  आओ एक पथ के पथिक-से

  प्रिय, अन्त और अनन्त के,

  तम-गहन-जीवन घेर।

 एक ही ब्रह्म की व्याप्ति इस सम्पूर्ण सृष्टि में है उसी के परम प्रकाश से यह सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड उद्भाषित है, उसी की सचेतन सŸाा इस ब्रह्माण्ड में परिव्याप्त है-

  जिस प्रकाश के बल से

  सौर ब्रह्माण्ड को उद्भासमान देखते हो

  उसमें नहीं वंचित है एक भी मनुष्य भाई।

  व्यष्टि और समष्टि में समाया वही एक रूप

  चिद्धन आनंद कन्द।

 सृष्टि का निर्माण ईश्वर की  सुन्दर इच्छा का ही परिणाम है। वेदान्त दर्शन की यही प्रतिध्वनि निराला जी के काव्य में गूँज रही है-

  जिनकी इच्छा से संसार में संस्तरण होता-

  चलते-फिरते हैं जीव,

  उन्हीं की इच्छा फिर सृजती है सृष्टि नयी।

 आत्मा में जब सत् चित् आनन्द तीनों स्वरूप मिलते हैं तभी आत्मा ब्रह्मलीन होती है। आत्मा अपने शुद्ध रूप में सर्वदा मुक्त है-

  मुक्त हो सदा ही तुम

  बाधा-विहीन-बन्ध-छन्द ज्यों

  डूबे आनन्द में सच्चिदानन्द रूप।

 आत्मा अजर और अमर है, स्वतंत्र है लेकिन वह इस स्वातन्त्र्य बोध कब पहचानती है। इस पर निराला जी स्वयं कहते हैं-

 “जिस केन्द्र में विचार उठता है उस केन्द्र में स्थिर रहना ही स्वातन्त्र्य है वही केन्द्र ब्रह्म है। वहाँ आप यदि स्थिर हो गये तो फिर कोई अभिव्यक्ति आपको चंचल नहीं कर सकेगी।”

 आत्मा को हृदय की चंचल गति सुरसरिता, मन मोहिनी माया, प्रकृति प्रेम जंजीर कहने वाले निराला जी अंततः आत्मा और परमात्मा के दिव्य मधुर      सम्बन्ध को बड़े ही भावपूर्ण शब्दों में स्वीकार करते हैं-

  तुम नाद-वेद ओंकार-सार,

  मैं कवि-शृंगार शिरोमणि

  तुम यश हो मैं हूँ प्राप्ति

  तुम कुन्द-इन्द-अरविन्द शुभ्र

  तो मैं हूँ निर्मल व्याप्ति।

 निराला का मत है कि यह आत्मा और परमात्मा का सम्बंध है जो चिरकाल से चला आ रहा है। परमात्मा अनंत शक्ति का भण्डार है और आत्मा उसका अंश होने से उसकी सब शक्तियों से युक्त है।

  तुम दिनकर के खर किरण जाल

  मैं सरसिज की मुस्कान।

 जीवात्मा का सम्बन्ध एक ओर जगत से है तो दूसरी ओर परम तŸव से है। आत्मा और परमात्मा दोनों के सन्दर्भ में ही जीव की महŸाा भी अनुपेक्षणीय है। उसी के कारण सृष्टि का अस्तिŸव है-

  मैं न रहूँगी जब सूना होगा जग

  समझोगे तब, यह मंगल कलरव सब

  था मेरे ही स्वर से सुन्दर जगमग

  चला गया सब साथ।

 जीवात्मा को ईश्वरीय अनुकम्पा उपलब्ध होते ही उसे यह संसार अवरोधक नहीं लगता-

  नाथ तुमने गहा हाथ वीणा बजी

  विश्व यह हो गया साथ द्विविधालजी।

 मायाजन्य इस संसार से जब जीवात्मा में मुक्ति की चेतना जाग्रत हेाती है तब वह परमात्मा की सŸाा को पहचानने का प्रयत्न करने लगता है। प्रेममयी भाव भक्ति के द्वारा जीव सूक्ष्म से सूक्ष्मातिसूक्ष्म होता हुआ उस अजस्र प्रकाश पुंज को पाकर परमानन्द में लीन होता है-

  पार करता रेखा जब समष्टि अहंकार की,

  चढ़ता है सप्तम सोपान पर,

  प्रलय तभी होता है,

  मिलता वह अपने सच्चिदानन्द रूप से।

 वेदान्त दर्शन की तरह निराला के दर्शन में भी भक्ति, ज्ञान, योग और कर्म सभी समाहित हैं। जीवन का अवलम्ब सेवा मानकर भक्ति में लीन रहकर मुक्ति चाहते हैं-

  भक्ति-कर्म-योग-ज्ञान एक ही हैं,

  एक ही है दूसरा नहीं है कुछ

  द्वैत भाव ही है भ्रम।

 ब्रह्म एक ही है फिर भी उसकी प्राप्ति साधना में भ्रम के अन्दर से ही जाना पड़ता है। शुद्ध चिŸाात्मा में प्रेमांकुर फूटता है यही प्रेम निराला को मानवीय प्रेम की निश्छल भाव-भूमि पर लाकर खड़ा करता है। ऐसी ही प्रेम संवेदना से युक्त जीवात्मा को अपने परम स्वरूप का दर्शन होता है-

  पाया स्वरूप निज,

  मुक्त कूप से हुई

  नीड़स्थ पक्षी को

  तम विभावरी गई-

  विस्तृत अनंत पथ

  गगन का मुक्त हुआ

  मुक्त पंख उज्ज्वल प्रभात में,

  ज्योतिर्मय चारों ओर

  परिचय सब अपना ही ,

  स्थिति में आनन्द में चिरकाल

  जाल-मुक्त ! ज्ञानम्बुधि।

 इसी परमात्मा से मिलन की बात कवि अपने गीतों में बार-बार करते हैं-

  ज्योति में तेरी प्रिय

  परिचय अपना हुआ

  ’ ’ ’

  क्षणिक प्रवाह में बह गया अंधकार,

  लुप्त अस्तिŸव,

  भासमान एकमात्र ज्ञान, उज्ज्वल आनंद

  सुख पूरित प्रभात,

  केलि-रश्मियों की रह गई।

 अपने कुछ गीतों में अपने ही हृदय में परम तŸव को खोजने की बात निराला जी ने कही है। जब तक वे मानवीयता से सम्बद्ध हैं उन्हें अंधविश्वास के छूटने का दुःख हो ही नहीं सकता है।

  पास ही रे हीरे की खान

  खोजता कहाँ और नादान।

  ’ ’ ’ ’

  छूटता है यद्यपि अधिवास

  किन्तु फिर भी न मुझे कुछ त्रास।

 ब्रह्म और जीवात्मा के मिलन में बाधक माया पर भी निराला जी ने बहुत कुछ कहा हे। मूलतः आत्मा परमात्मा से अभिन्न है। भेद का सृजन माया के कारण ही होता है-

  व्यष्टि औ समष्टि में नहीं है भेद

  भेद उपजाता है भ्रम

  माया जिसे कहते हैं।

 माया ही परमात्मा का सत्य स्वरूप देखने में बाधक बनती है। यह सम्पूर्ण संसार माया के वशीभूत है।

  माया की गोद, खेलता है चराचर तेरा

  न लगा हाथ, कैसा भर गया सागर तेरा

 जीवात्मा अज्ञान के वशीभूत हो स्वयं अपने ही मायाजाल का सृजन करती है और माया के भँवर में डूब जाती है।

  व्यर्थ की चिन्ता में चित्त डाल

  गूँथ अपना यह माया जाल

  फँसा पग अपने तू तत्काल

  बुलाता औरों को बेहाल।

 निराला कोई दार्शनिक मत का प्रतिपादन करने वाले संत नहीं हैं बल्कि एक कवि हैं उनका दर्शन किसी वाद विशेष में न बँधकर मानवीय कल्याण की कामना की उपज मात्र है। इसीलिये कर्म के प्रतिपादन में वह प्रेम, सेवा और भक्ति का मार्ग उचित समझते हैं। ईश्वर की शरण में जीवन के महादुख मिट जाएँगे ऐसा उनका विश्वास है।

 सखी री यह डाल वसन वासन्ती लेगी, सोचती आप अपलक खड़ी, प्रिय यामिनी जागी, गई निशा वह हँसी दिशाएँ आदि गीतों में उनका यह प्रेम दर्शन प्रेम और सौंदर्य की भावना के साथ विद्यमान है।

 निराला जी का दर्शन किसी संप्रदाय विशेष का न होकर वैयक्तिक और सामाजिक विरक्ति का प्रतिफल है। हाँ निराला जी के दार्शनिक विचारों में एक नितांत नवीननता और मौलिकता है उनके उर्ध्वगमन के चित्र हैं जो उन्हें अन्य दार्शनिक विचारों वाले कवियों से अलग हटाती है। निराला की जीवात्मा असीम, विराट से सम्बन्ध स्थापन में जो उर्ध्व गमन करती है ऐसा उन्मुक्त विचरण नितान्त निराला की देन है-

  वह उस शाखा का वन विहंग

  उड़ गया मुक्त नभ निस्तरंग-

 इसी उन्मुक्त आकाश में विचरण का प्रसंग राम की शक्ति पूजा में भी मिलता है। यहाँ पर जीवात्मा यौगिक क्रियाओं द्वारा ऊर्ध्व गमन कर परमशक्ति का दर्शन करती है। वैसे निराला का दर्शन मानवीय संवेदना से मुक्त होकर नव निर्माण की प्रेरणा देता है। भौतिकता को एकदम तिरस्कृत न करके उसमें भी अपनी आशक्ति प्रकट करता है। मानव और ईश्वर को आस्था तथा आस्तिकता केा सुन्दर भाव-भूमि प्रदान करता है। इस भाव-भूमि का निर्माण औपनिषदिक विचारधारा के समन्वय से होता है।



(स)- रहस्य भावना-



 अद्वैत चिन्तन का भावात्मक पक्ष रहस्यवाद के अंतर्गत आता है। असीम, परमब्रह्म से आत्मा के मिलन में कुछ ऐसे व्यवहार भी होते हैं जो अस्पष्ट होते हैं। यहीं पर साधक की भावना रहस्यमय हो जाती है। दार्शनिक चिन्तन का अद्वैतवाद भावना के क्षेत्र में रहस्यवाद बन जाता है। क्योंकि “बहिरंग जीवन से सिमट कर जब कवि की चेतना ने अन्तरंग में प्रवेश किया तो कुछ बौद्धिक जिज्ञासायें- जीवन और मरण सम्बंधी, प्रकृति और पुरुष सम्बंधी, आत्मा और विश्वात्मा सम्बंधी, काव्य में स्वाभावतः आ गई।” वास्तव में रहस्य भावना परमात्मा का बोध और साक्षात्कार है। यह आध्यात्मिक अनुभूति की वह अवस्था है जिसमें साधक परमात्मा के मिलन का चरम प्रयास करता है।

 यह रहस्यवाद निराला जी के गीतिकाव्य में दर्शन परक प्रकृति, प्रेम और भक्ति सभी रूपों में मिलता है। आत्मा परमात्मा के संबन्ध निरूपण में रहस्य भावना का निराला में स्वतः समावेश हो गया है।

 निराला की रहस्यभावना में आस्था और समर्पण का भाव अधिक है, जिज्ञासा कम है। वे जिज्ञासा की सहज सीमा से बहुत ऊपर जाकर आत्मा-परमात्मा के मिलन और परमात्मा में विलीन होने की मधुर इच्छा में निरत है। “वे कबीर, मीरा और महादेवी की भँाति अपने को हरि की बहुरिया नहीं कहते वरन् वे वेदोपनिषद् के चिन्तन के अनुसार आत्मा-परमात्मा दोनों को पुल्लिंग मानते हैं क्योंकि आत्मा, परमात्मा का ही अंश है।”1

 निराला के रहस्यवाद की एक विशेषता यह है कि उसका प्रथक अस्तित्व ने होकर वह आध्यात्मिक चिंतन वाले गीतों में सर्वत्र व्याप्त है। निराला की रहस्य भावना उनके अपने दर्शन-चिंतन का परिणाम है। ब्रह्म और जीवन के सम्बंध की रहस्य भरी व्याख्या करते हुये कवि ने कहा है-

  तुम तुंग हिमालय-शृंग

  और मैं चंचल-गति सुर सरिता।

  तुम विमल हृदय उच्छ्वास

  और मैं कान्त कामिनी कविता।

 अपनी इस रहस्यात्मकता में कवि ने एक जिज्ञासु के रूप में उस असीम सत्ता से कई प्रश्न भी किये हैं-

  मृत्यु निर्माण प्राण-नश्वर

  कौन देता प्याला भर-भर ?

  ’ ’ ’ ’

  नाचते ग्रह, तारा-मण्डल

  पलक में उठ गिरते प्रति पल,

  धरा घिर घूम रही चंचल

  काल-गुणत्रय-मय-रहित समर।

  काँपता है वासन्ती वात,

  नाचते कुसुम-दशनतरु-पात,

  प्रात, फिर विधुप्लावित मधु-रात।

 सम्पूर्ण सृष्टि के एक-एक तत्त्व में उस असीम की सत्ता का आभास पा कवि पूछ बैठता है-

  किस अनंत का नीला अंचल हिला-हिलाकर

  आती हो तुम सजी मण्डलाकार ?

  एक रागिनी में अपना स्वर मिला-मिलाकर

  गाती हो ये कैसे गीत उदार ?

  ’ ’ ’ ’ 

  चरण बढ़ाती हो,

  किससे मिलने जाती हो।

 उस परम सत्ता के प्रति कवि की असीम अनुरक्ति है। यह आस्था कवि की रहस्य भावना, सौन्दर्य और प्रेम के विविध रूपों में अभिव्यक्त हुई है। वे समस्त विश्व में उस परम सौंदर्य को बिखरा हुआ देखते हैं।

  कौन तुम शुभ्र किरण वसना।

  सीखा केवल हँसना-केवल हँसना

  मन्द मलय भर अंग गन्धमृदु,

  बादल अलका बलि कुंचित ऋजु,

  तारक हार, चन्द्र मुख, मधु ऋतु

  सुकृत -पुंज-अशना।

  शुभ्र किरण वसना।

 प्रेम मानव हृदय का सनातन भाव है। इसी सनातन प्रेम भाव का ‘जूही की कली’3 तथा ‘प्रिया के प्रति’4 में रहस्य भाव के साथ वर्णन हुआ है।

 परम तŸव के दर्शन की जिज्ञासा कवि को व्याकुल कर रही है । जैसे-

  तुम हो अखिल विश्व में

  या यह अखिल विश्व तुममें

  अथवा अखिल विश्व तुम एक,

  यद्यपि देख रहा है तुम में भेद अनेक।

 अपने उस परम प्रिय से मिलन में देरी पर कवि का हृदय विरहानुभूति से भर कर व्यथित हो उठता है। आशा निराशा के झूले में झूलने लगता है-

  कब से मैं पथ देख रही प्रिय,

  उर में न तुम्हारे रेख रही प्रिय।

  ’ ’ ’ ’ ’

  मुझे स्नेह क्या मिल न सकेगा ?

  स्तब्ध, दग्ध मेरे मरु का तरु

  क्या करुणा कर खिल न सकेगा ।

 प्रिय से मिलन में आत्मा अभिसारिका नायिका की तरह प्रिय से मिलन को चल पड़ती है। क्योंकि उसकी रूप-छवि मन में ऐसी समा गई है कि बिना मिलन के शृंगार भी पूरा कहाँ है-

  मौन रही हार

  प्रिय पथ पर चलती, सब कहते शृंगार

  ’ ’ ’ ’ ’ 

  शब्द सुना हो, तो अब लौट कहाँ जाऊँ

  उन चरणेों को छोड़, और शरण कहाँ पाऊँ ?

 इस मिलन के लिये जग के उस पार जाना ही अभीष्ट है जहाँ प्रेम की रस धार बहती है। वहीं ज्योति का ज्योति से मिलन होता है, अतः आत्मा वहाँ पहुँच द्वार पर दस्तक देती है, करुण स्वर में पुकारने लगती है-

  बंद तुम्हारा द्वार !

  मेरे सुहाग शृंगार !

  द्वार यह खोलो !

  सुनो भी मेरी करुण पुकार !

  जरा कुछ बोलो !

 अन्त में मिलन होता है। प्रिय की बाँह पकड़ते ही तन शीतल हो जाता हैै-

  मैं बैठा था पथ पर

  हँसे किरन फूट पड़ी

  भूल गये पहर घड़ी

  उतरे बढ़ गही बाँह

  शीतल हो गई देह।

 भक्ति परक रहस्य भावना में कवि ने मातृ शक्ति के ज्योतिर्मयी, देवी, अखिल सुन्दरी के रूप में उस परम सत्ता का दर्शन किया है। जैसे राम की शक्ति पूजा में राम द्वारा दुर्गा की उपासना करवाने का चित्र ऐसी ही रहस्य भावना का प्रतीक है।

 नारी रूप में परम सत्ता का निखिल सौन्दर्य मयी के रूप में दर्शन निराला ने बड़े ही भाव रूप में प्रस्तुत किया है-

  रहा तेरा ध्यान

  जग का गया सब अज्ञान।

  गगन घन-विटपी, सुमन नक्षत्र-ग्रह, नव-ज्ञान

  बीच में तू हँस रही ज्योत्सना-वसन परिधान।1

 योगियों की तरह आत्मा-परमात्मा का अद्वैत भाव भी निराला के कई गीतों में हैं-

  जगता है जीव जब

  क्रम-क्रम से देखता है

  अपने ही भीतर वह

  सूर्य, चन्द्र, ग्रह, तारे।

 परम ब्रह्म के दर्शन की हीरे सी खान स्वतः साधक के अंदर है लेकिन वह फिर भी भ्रमवश इस सृष्टि में उसे ढँ़ूढ़ता है।3ै और जिज्ञासु की तरह प्रश्न करता है-

  कौन तम के पार रे कह ?

  अखिल-पल के स्रोत-जल जग

  गगन घन-घन-धार रे !

 और अंत मे उस परम सत्ता से साक्षात्कार होने पर, उसके साथ तादात्म्य का अनुभव करने पर जीवात्मा उस सर्वत्र में केवल ‘मैं’ का ही दर्शन कर कह उठती है-

  वहाँ-कहाँ कोई है अपना ? तव-

  सत्य नीलिमा में लयमान !

  केवल मैं, केवल मैं, केवल

  मैं, केवल मैं, केवल ज्ञान।

 इस प्रकार भक्ति, प्रेम, प्रकृति और दर्शन सभी प्रकार से निराला का रहस्यवाद अपनी कसौटी पर खरा है। उनका रहस्य चिन्तन अपना स्वतंत्र व मौलिक है। निराला की रहस्य भावना अपने सभी रूपों में पूर्ण है। हाँ यहाँ पर यह बात भी ध्यान रखने योग्य है कि आध्यात्मिक चिन्तन की तरह रहस्य दर्शन भी मानव की मंगल कामना से परिपूर्ण है।

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