19 August 2018

निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना

निराला जी के गीतों में सांस्कृतिक चेतना   

                              -डा० साधना शुक्ला
   - 2 ---

अपने गीतिकाव्य में मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापना में ही निराला जी अपने जीवन की सार्थकता मानते हैं। इसी के लिये वह सामान्य जन की करुणा से द्रवीभूत हो ‘मैं शैली’ अपना लेते हैं।4 उनके दुख से द्रवीभूत हो अपने हृदय में सघन वेदना का अनुभव करते हैं और इन मानवीय मूल्यों की प्रतिस्थापना में विद्रोह, संघर्ष, क्रांति का आह्वान करते हुये अन्त में प्रभु से करुण स्वर में प्रार्थना करते हुये दिखाई देते हैं-
उन चरणों में दो मुझे शरण,
करूँ लोक-आलोक संतरण।5
इस तरह इन मूल्यों के लिये मानवीय मूल्यों की इस आदर्श प्रतिष्ठा में कवि के गीतिकाव्य में अपने देश के भव्य सांस्कृतिक गरिमा से युक्त अनेक स्मृति-चित्र उभरते हैं जिनमें- खण्हर के प्रति,6  दिल्ली,7  उद्बोधन,8  सहस्राब्दि,9  यमुना के प्रति,10  यही,11 प्रमुख हैं।
निराला जी ने भारत के हर युग के जीवनादर्शों की खण्हर होती हुई पीड़ा को जैसे स्वयं अनुभव किया है। उन भव्य आदर्श जीवन मूल्यों के भारत के खण्डहर को अपना प्रणाम इन शब्दों में प्रस्तुत किया है-
खण्डहर ! खड़े हो तुम आज भी ?
अद्भुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज
विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें-
करुणाकर, करुणामय गीत सदा गाते हुये ?
आर्Ÿा भारत ! जनक हूँ मैं
जैमिनि-पतंजलि-व्यास-ऋषियों का,
मेरी ही गोद में शैशव विनोद कर
तेरा है बढ़ाया मान
राम कृष्ण भीमार्जुन-भीष्म नरदेवों ने।
तुमने मुख फेर लिया
सुख की तृष्णा से अपनाया है गरल
तो बसे नव छाया में
नव स्वप्न ले जगे,
भूले वे मुक्त प्राण, साम-गान, सुधापान।
बरषों आशीष, हे पुरुष पुराण
तव चरणों में प्रणाम है।1
इसी स्मृति-चिन्तन में ‘यमुना के प्रति’ में भी कवि यही पुरातन जीवन मूल्यों केे बिखर जाने की बात कहते हैं। जो कभी यमुना के तट पर, कुंजों में, ब्रज की गलियों में निर्मित हुये थे। जिनमें कृष्ण और ब्रजवासियों के स्नेह का अंकुर फूटा था। आज के समाज में इस स्नेह की कमी और स्वार्थ में निरंतर गहरे फँसते हुये मानव को देख कवि का अपने समय की संस्कृति की धरोहर यमुना से प्रश्न पूछना मार्मिक ही है-
यमुने तेरी इन लहरों में
किन अधरों की आकुल तान,
पथिक-प्रिया सी जगा रही है
उस अतीत के नीरव गान ?
बता कहाँ अब वह वंशीवट ?
कहाँ गये नटनागर श्याम ?
चल-चरणों का व्याकुल पनघट
कहाँ आज वह वृन्दाधाम ?2
कवि की स्मृति का यह प्रयास अपने समय के स्नेह रिक्त मानव के मन में स्नेह से जीवन जियो का संकेत है।
इसी मर्यादित स्नेह की स्मृति ‘दिल्ली’ शीर्षक गीत में भी है-
क्या यह वही देश है-
भीमार्जुन आदि का कीर्तिक्षेत्र,
चिर कुमार भीष्म की पताका ब्रह्मचर्य दीप्त
उड़ती है आज भी जहाँ के वायु मण्डल में
उज्ज्वल, अधीर और चिर नवीन ?
श्री मुख से कृष्ण के सुना था जहाँ भारत ने
गीता-गीत सिंहनाद-
मर्मवाणी जीवन-संग्राम की-
सार्थक समन्वय ज्ञान कर्म-भक्तियोग का ?
यह वही देश है
परिवर्तित होता हुआ ही देखा गया जहाँ
भारत का भाग्य चक्र ?
आकर्षण तृष्णा का
‘पृथ्वी’ की चिता पर
नारियों की महिमा उस सती संयोगिता ने
किया आहूत जहाँ विजित स्वजातियों को
सुनते ही रहे खड़े भय से विवर्ग जहाँ
अविश्वस्त, संज्ञाहीन, पतित, आत्मविस्तृत नर ?
क्या यह वही देश है,
सन्ध्या की स्वर्ण वर्ण किरणों में
दिग्वधू अलस हाथों से,
थी भरती जहाँ प्रेम की मदिरा।1
ऐसे प्रेम-स्नेह से जीवन जीने वाले मानव के देश में स्वार्थ, कपट, अहं, यश की भूख का नग्न ताण्डव देख कवि कह उठते हैं-
हाय री यशोलिप्सा,
अंधे की दिवस तू
अंधकार-रात्रि -सी।
लपटों में झपट
प्यासों मरने वाले
मृग की मरीचिका है।1
कवि निराला अपने ऐसे आदर्श वैभवशाली अतीत के जीवन मूल्यों को विनिष्ट होते देख कर चुप नहीं बैठते बल्कि उन मूल्यों की नवसर्जना के लिये कहते हैं-
मेरे गीतों का छाया अवसाद,
देखा जहाँ, वहीं है करुणा,
घोर विषाद !
ओ मेरे - मेरे बन्धन उन्मोधन!
ओ मेरे - ओ मेरे क्रंदन-वंदन !
ओ मेरे अभिनंदन !
ये संतप्त लिप्त कब होंगे गीत,
हृतल में जैसे शीतल चन्दन।2
‘तुलसीदास’ कवि निराला का मानवीय मूल्यों को प्रतिस्थापित करने वाला एक श्रेष्ठ गीति कहा जा सकता है। मुगल कालीन संस्कृति पर हिन्दू संस्कृति की निर्माण मूलक चेतना अपने में अद्वितीय है।3
ऐसा ही नहीं है कि कवि केवल ऐतिहासिक भव्य संस्कृति की स्मृति में निमग्न होकर ही नवनिर्माण चाहते हैं बल्कि तत्कालीन नवीन और समसामयिक वैज्ञानिक संस्कृति के अतिशय विकास और उससे होने वाले विनाश से भी चिन्तित है।
आज सभ्यता के वैज्ञानिक जड़ विकास पर
गर्वित विश्व नष्ट होने की ओर अग्रसर
स्पष्ट देख रहा , सुख के लिये खिलौने जैसे
बने हुये वैज्ञानिक साधन, केवल पैसे
आज लक्ष्य में है मानव के, स्थल-जल-अम्बर
रेल-तार-बिजली-जहाज नभयानो से भर
दर्प कर रहे हैं मानव, वर्ग से वर्गगण,
भिड़े राष्ट्र से राष्ट्र, स्वार्थ से स्वार्थ विचक्षण।4
मानव के विनाश की इसी चिन्ता से ग्रस्त कवि समाज के उस व्यथित, आक्रांत और उत्पीड़ित मानव समाज की ओर मुड़ते हैं जो उनकी सांस्कृतिक चेतना और मानवीय मूल्यों की स्थापना में कभी न भूलने वाली वाणी है। निराला जी ने व्यष्टि और समष्टि को समान महत्व दिया है। वे यह समझते थे कि व्यक्ति के विकास में ही समष्टि का विकास निहित है। निराला जी किसी एक व्यक्ति विशेष या वर्ग विशेष के साथ नहीं बल्कि सम्पूर्ण भारतीय जन मानस के साथ दिखाई दिये हैं। मानवीय चेतना और प्रेरणा के ऊपर गायक निराला छायावादी अन्य कवियों से कहीं बहुत आगे दिखाई दिये हैं। इसीलिये उनका काव्य नूतन समाज व्यवस्था और नूतन संस्कृति के निर्माण का स्वर है।

2- सामाजिक मान्यतायें

सामाजिक मान्यतायें समाज की आदर्श व्यवस्था बनाये रखने में सहायक होती है। सामाजिक जीवन के विभिन्न पहलुओं से जैसे- वर्ण व्यवस्था, धर्म, शिक्षा, जाति, विवाह, वेश-भूषा तथा मानवीय व्यवहार से इन मान्यताओं का निर्माण होता है। समाज की यह मान्यतायें मानव को निश्चित तरीके से अपना व्यवहार करने को प्रेरित करती हैं। इनके विपरीत आचरण पर मनुष्य को आलोचना का पात्र बनना पड़ता है। अर्थात् ये सामाजिक मान्यतायें, लोकाचार या रीतियाँ मानवीय कल्याण की भावना से युक्त होती है।
छायावादी कविता में निराला जी ऐसे कवि हैं जिनका सम्पूर्ण काव्य इन मान्यताओं की सांस्कृतिक चेतना में या तो विरोध के लिये खड़ा है या अतीत की भव्य आदर्श मान्यताओं की स्मृति के रूप में। जहाँ इन मान्यताओं के विरोध की बात है वहाँ ऐसा ही नहीं है कि निराला जी मात्र विरोध ही करते हैं बल्कि वे अपने कथन द्वारा उस इंगित तथ्य की ओर नवीन अर्थ, और नवीन चेतना देना चाहते हैं। वहाँ पर निराला जी आदर्श और उपादेय को ग्रहण करना चाहते हैं और अशोभनीय को छोड़ देने की बात कहते हैं। वर्ण व्यवस्था, अस्पृश्यता, ऊँच-नीच, दहेज, विवाह, नारी जीवन, धर्म तथा सामाजिक जीवन की अन्य विविध मान्यताओं पर निराला जी ने गहरा आक्रोश प्रकट करते हुये उसके सुधार के लिये विविध तर्क प्रस्तुत किये हैं। उन्होंने धार्मिक रूढ़ियों, पौराणिक देवी-देवताओं के प्रति अन्ध-श्रद्धा, मूर्तिपूजा, साम्प्रदायिक भेदभाव, शूद्रों पर द्विजों के अत्याचार का विरोध किया, मनुष्य मात्र की समानता की घोषणा की.........अपनी क्रांतिकारी दृष्टि से साहित्य की परिधि उन्होंने विस्तृत की, पुरानी संकीर्ण रूढ़ियाँ तोड़कर उन्होंने नये भावों और विचारों के लिये मार्ग प्रशस्त किया।
निराला जी की दृष्टि में मनुष्य की सत्ता ही सर्वोपरि है। और समाज मनुष्य की ही सामाजिक व्यवस्था है। “साहित्य सामाजिक कर्म-विधान का एक सक्रिय अंग है।...........हमारे समाज की जाग्रत शक्तियाँ वे लोग हैं जो दलित और शोषित हैं...............प्रगति शील साहित्य समाज के सुख-दुख की अभिव्यक्ति को ही महत्व देता है...............अर्थात् प्रगतिशील लेखक की भावना सामाजिक भावना है, व्यक्तिगत नहीं।”
निराला जी अपने गीतों के प्रारम्भिक चरण से ही ऐसे व्यथित संघर्षरत मानव की संवेदना से युक्त होकर ऐसी सामाजिक मान्यताओं का यथार्थ बोध कराते रहे हैं जो मनुष्य मात्र के लिये अहितकर है। मनुष्य की सामाजिक दुर्बल मान्यताओं का प्रतिकार करके आदर्श मानवता की भाव-भूमि पर संचरण करना निराला का मुख्य उद्देश्य है। निराला जी ऐसा इसलिये करना चाहते हैं कि समस्त विश्व के मनुष्य हमारी मनुष्यता के दायरे में आ जायें, हर तरह, कर्म, वाणी और मन से भी। यह  क्रिया हमें संसार के मनुष्यों की आँखों में उठा सकती है।
‘प्रबंध प्रतिमा’ की भूमिका में निराला जी लिखते हैं- विचार शुद्धि के लिये धन ही नहीं, समाज, शरीर और मन भी देना पड़ता है, तब विश्व मानवता की पहचान होती है। हमारे पीड़ित, अशिक्षित, पतित, निराश्रय, निरन्न मानवों का तभी उद्धार होगा, तभी भारत की भारती जाग्रत कही जायेंगी, तभी उसकी अपनी विशेषता सिर उठायेगी।
इस तरह निराला जी समाज में फैली संकीर्ण मान्यताओं को या तो मिटा ही देना चाहते हैं या फिर उनमें सुधार कर एक आदर्श समाज की स्थापना करना चाहते हैं। निराला जी के गीतिकाव्य में विचारों की यह प्रगतिशील आद्योपान्त देखी जा सकती है। उनकी प्रारम्भिक रचनाओं में आवेश, उत्साह, स्फूर्ति का स्वर है तो परवर्ती काव्य में दैन्य, उत्पीड़न और समाज की शोषित मान्यताओं से भीतर तक टूटे हुये कवि की आहत और व्यंग्य प्रधान वाणी है। समाज के लिये नये जीवन मूल्यों की उद्घोषणा है।
हमारे भारतीय समाज में व्याप्त वर्ण-व्यवस्था जो हमें कोई सुंदर सामाजिक व्यवस्था तो न दे सकी बल्कि ऊँच-नीच की भावना से जनसामान्य को ग्रसित कर दिया। समाज का उच्च वर्ग निम्न वर्ग को छूने में भी कतराने लगा। उच्च वर्ग में एक अहं का भाव जन्मा और निम्न वर्ग को मिला दबा सहमा-सहमा हीन भाव से ग्रसित जीवन। निराला जी को यह सामाजिक वर्ण व्यवस्था बहुत कचोटती है तभी वे ‘तुलसीदास’ में भारतीय संस्कृति के सूर्यास्त और इस्लामी शासन के चन्द्रोदय की बात नहीं भूलते और अगर उन्हें कुछ भी भुलाये नहीं भूलता है तो वह है सम्पूर्ण देश में क्षुद्रतम वासना का साम्राज्य, स्त्रियों का अहं, ब्राह्मणों की चाटुकारिता, दलित शूद्र्रों की दीन-हीन दशा-
विधि की इच्छा सर्वत्र अटल
यह देश प्रथम ही था हत-बल,
वे टूट चुके थे ठाह सकल वर्णों के,
तृष्णोद्धत, स्पर्यागत, सगर्व
स्त्रिय रक्षा के रहित सर्व,
द्विज चाटुकार, द्वत इतर वर्ग वर्णां के।
चलते-चलते फिर निस्सहाय,
वे दीन-क्षीण कंकालकाय,
आशा केवल जीवनोपाय उर-उर में,
रण के अश्वों से शस्य सकल
दलमल जोते ज्यों, दल से दल
शूद्रगण क्षुद्र-जीवन-सम्बल पुर-पुर में।
वे शेष श्वास, पशु मूक-भाष,
पाते प्रहार अब हताश्वास,
सोचते कभी आजन्म ग्रास द्विजगण के
होना ही है उनका धर्म परम,
वे वर्णाश्रम हैं द्विज उत्तम,
वे चरण-चरण बस, वर्णाश्रम रक्षण के।
उपरोक्त पंक्तियों में समाज की उस समय की वर्णव्यवस्था का हृदयग्राही वर्णन है। शूद्रों की दयनीय दशा पर कवि का हृदय भर उठता है। यहाँ पर कवि की लोक मंगलकारी भावना ध्यान देने योग्य है। कवि नहीं चाहते कि ऐसी मान्यता समाज में बनी रहे। उच्च वर्ण ब्राह्मणों के और निम्नवर्ग शूद्रों का संकेतक रहे। वे इसे मिटाना चाहते हैं। समाज में एकता लाना चाहते हैं। ब्राह्मण समाज पर तो उनकी खीज बराबर निकलती है। जैसे-
ये कान्यकुब्ज-कुल, कुलांगार
खाकर पत्तल में करें छेद।
बम्हन का लड़का
मैं उसको प्यार करता हूँ
जात की कहारिन वह
मेरे घर की पनिहारिन वह
आती है होते तड़का
उसके पीछे मैं मरता हूँ।
उपरोक्त पंक्तियों में कवि ब्राह्मण समाज में व्याप्त संकीर्णताओं तथा उनके उच्च होने के अहं पर प्रहार करते हैं।
इसी ‘चर्खा चला’ में भी ‘वेदों’ की जाति चार भागों में बँटी, कहने के अर्थ में भी उनका व्यंग्य ही है। ‘तारे गिनते रहे’ में ‘बनियावाद’ पर करारा प्रहार है।
बालों के नीचे पड़ी जनता बलतोड़ हुई,
माल के दलाल में वैश्य हुये देश हैं।
निराला जी समाज की यह व्यवस्था ऐसे ही नहीं रहने देना चाहते बल्कि नये समाज की कल्पना में वह मनुष्य के जीवन को नवीन स्वतंत्र प्रकाश से भर देना चाहते हैं। समाज में व्याप्त इस ऊँच-नीच की मान्यता को मिटाकर मनुष्यत्व ही सब धर्मों, वर्णों और जातियों में श्रेष्ठ है; की उद्घोषणा करते हैं-
विश्व के जीवन से,
बदले हुये कुम्हार,
नाई-धोबी-कहार,
ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य,
पासी-भंगी-चमार,
परिया और कोल-भील,
नहीं यह आज का हिन्दू,
आज का यह मुसलमान,
आज का ईसाई सिक्ख,
आज का यह मनोभाव,
आज की यह नवरेखा
नहीं यह कल्पना,
सत्य है मनुष्य का
मनुष्यत्व के लिये
बन्द है जो दल अभी
किरण सम्पात से
खुल गये वे सभी।
कवि अपने उत्साह भरे शब्दों के द्वारा समाज में व्याप्त जाति-पाँति की संकीर्ण मान्यता को सदा के लिये दूर कर एकता स्थापित करना चाहते हैं। जहाँ ऊँच-नीच का भाव ही नहीं होगा-
जल्द-जल्द पैर बढ़ाओ आओ, आओ !
आज अमीरों की हवेली
किसानों की होगी पाठशाला
धोबी, पासी, चमार, तेली,
खोलेंगे अँधेरे का ताला
एक पाठ पढ़ेंगे, टाट बिछाओ।
समाज की इन जर्जरित मान्यताओं को सोचने-समझने के लिये निराला का सम्बंध बराबर समाज के कृषक और श्रमिक वर्ग के साथ रहा है। उनकी व्यंग्य की दृष्टि में समाज का अमीर वर्ग है। कुत्ता भौंकने लगा, झींगुर डटकर बोला, छलांग मारता चला गया, डिप्टी साहब आये, मंहगू मंहगा रहा, तथा कुकुरमुत्ता में कवि का यही दृष्टिकोण प्रधान है।
चूँकि हम किसान-सभा के
भाई जी के मददगार
जमींदार ने गोली चलवाई
पुलिस के हुक्म की तामीली को।
ऐसा है पेंच है।
अमीर वर्ग ही शोषक नहीं रहेगा ऐसी जन-शक्ति को निराला जी ने पहचाना था तभी तो उनका मँहगू लुकुआ को समझााता है- एक दिन बड़े-बड़े आदमी धन मान सभी छोड़ेंगे, तभी देश मुक्त होगा और ‘मैं मंहगू’ अर्थात्-‘जनशक्ति’ मंहगा हूँगा।
समाज के आर्थिक वैषम्य पर निराला जी की दृष्टि निरंतर रही है। समाज की यह मान्यता कि जिसके पास धन है उसके पास सोहरत है। समाज उसके साथ है और जहाँ निर्धनता है वहाँ व्यथा है, असफलता है। अन्न के एक-एक दाने की ओर ताकती निर्धन आँखें हैं। भूखे पेट किसान की विवशता है-
वेश-रूखे अधर सूखे
पेट-भूखे, आज आये।
हीन-जीवन, दीन-चितवन
छीन आलम्बन बनाये हैं।
प्यास पानी से बुझाने को
बुझाई रक्त से जब,
आँख से आया लहू,
लोहा बजाया शक्ति से जब,
रुण्ड-मुण्डों से भरे हैं खेत
गोलों से बिछाये।
और समाज का सम्पन्न वर्ग जहाँ अर्थ है वहाँ-
चूँकि यहाँ दाना है
इसीलिये दीन है दीवाना है।
लोग हैं, महफिल है,
नग्में हैं, आवाज है,
दिलदार है और दिल है
शम्मा है, परवाना है,
चूँकि यहाँ दाना है।
इस अीर्थिक वैषम्य पर बार-बार निराला जी प्रहार करते हैं। ‘कुकुरमुत्ता’ का पूँजीपति और शोषक वर्ग, ‘खजोहरा’ के गकले से दौड़ने वाले,  न्याय दिलाने के ठेकेदार धन के लालची वकील, दोनों में ही सजीव दृश्य के साथ गहरा व्यंग्य है। ‘नये पत्ते’ के अन्य कई गीतों में निराला जी आर्थिक सामाजिक व्यवस्था पर अपने सशक्त विचार प्रकट करते हैं। यहाँ तक कि कवि जमींदार और महाजनों को पिशाच तक कह डालते हैं-
जमींदार की बनी
महाजन धनी हुये हैं।
जग के मूर्त पिशाच
धूर्तगण गनी हुये हैं।
धार्मिक अंधविश्वासों पर व्यंग्य करते हुये निराला जी धर्म के नाम पर जनता को भ्रमित करने वाले साधुओं, पण्डों के पाखण्ड को बड़े ही कटु यथार्थ के साथ प्रस्तुत किया है-
आ रे गंगा के किनारे
झाऊ के वन से पगडण्डी पकड़े हुये
रेती की खेती छोड़कर, फूस की कुटी,
बाबा बैठे झारे-बुहारे !
पण्डों के सुघर-सुघर घाट हैं,
तिनके टट्टी के ठाट हैं,
यात्री जाते हैं, श्राद्ध करते हैं,
कहते हैं कितने तारे !
गंगा के घाटों पर बैठने वाले पाखण्डी साधुओं का ऐसा वर्णन अत्यन्त दुर्लभ है। इसी धर्म के नाम पर हमारे देश के निवासियों को, यहाँ की सभ्यता को कितना छला गया, धर्म और सभ्यता को मानव के खून से रंगा गया है। आखिर धर्म के नाम पर समाज को, सभ्यता केा क्यों दूषित किया जाता है। ऐसी घ्रणित मान्यता की ओर भी निराला जी संकेत करते हैं।
धर्म का बढ़ावा रहा, धोखे से भरा हुआ।
लोहा बजा धर्म पर, सभ्यता के नाम पर।
खून की नदी बही।
आँख-कान मूँद कर जनता ने डुबकियाँ लीं।
नारी जीवन की कुछ ऐसी मान्यताएँ जो आज भी समाज में कुत्सित रूप लिये हैं, उन पर निराला जी की दृष्टि गई है। ‘विधवा’ नारी जीवन की ऐसी स्थिति है जिसके विषय में समाज की सम्पूर्ण मान्यताएँ उत्पीड़न का पयार्य है। उसके लिये शृंगार जीवन का सुख कुछ भी अर्थ नहीं रखता है बल्कि अपने विगत जीवन की स्मृति में करुणा से पुलकित हो अश्रु बहाती हुई वह भी चुपचाप, जीवन जिये जाना है या ऐसे कहना चाहिये कि जीवन का अन्त करना है। नारी जीवन की यह उपेक्षा भारतीय समाज के लिये अभिशाप है। इसका यथार्थ, सजीव और करुण चित्र हमें निराला जी की ‘विधवा’ में मिलता है-
वह क्रूर-काल -ताण्डव की स्मृति-रेखा-सी
वह टूटे तरु की छुटी लता-सी दीन-
दलित भारत की ही विधवा है।
कौन उसको धीरज दे सके ?
दुःख का भार कौन ले सके ?
इसी भारत की मजदूरिन जो अपने नारी सुलभ सुकुमारता को दूर रख पुरुषों की तरह कार्य करती है। ऊँचे-ऊँचे भवनों के निर्माण में सहायक हो पसीना बहाती है। उसके श्रम का कोई मूल्य नहीं है-
उस भवन की ओर देखा छिन्न तार,
देखकर कोई नहीं,
देखा मुझे उस दृष्टि से
जो मार खा रोई नहीं।
‘रानी और कानी’ निराला जी का ऐसा हृदयस्पर्शी गीत है जिसमें ऐसी कटु सामाजिक मान्यता पर प्रहार है जो आज भी समाज में व्याप्त है । और वह मान्यता है विवाह योग्य लड़की का सुन्दर होना। कुरूप कन्या का विवाह इस समाज में असम्भव है चाहे वह कितनी ही कर्मठ हो, एक कुरूप कन्या के हृदय की भावनायें व उसकी माँ के हृदय को सालती वेदना की मार्मिक अभिव्यक्ति इस गीत में हुई है।
निराला जी धार्मिक, जातिगत और वर्णगत सभी बंधनों से मुक्त नारी को देखना चाहते हैं। ऐसी स्थिति में ही नारी की सामाजिक दशा में क्रांति सम्भव है कुछ ऐसे ही विचार ‘प्रेयसी’ गीत में मिलते हैं जो निराला के नारी के सम्बंध में प्रगतिशील विचारों के परिचायक हैं-
दोनों हम भिन्न वर्ग,
भिन्न जाति, भिन्न रूप,
भिन्न धर्म भाव, पर
केवल अपनाव से प्राणों से एक थे।
किन्तु दिन-रात का, जल और पृथ्वी का
भिन्न सौन्दर्य से बंधन स्वर्गीय है,
समझे यह नहीं लोग
व्यर्थ अभिमान के।
अपने काव्य नारी के आदर्श रूप के प्रतिष्ठापक निराला जी नारी को अपनी इस दशा से मुक्ति दिलाने की अभिलाषा भी रखते हैं। निराला जी की नारी यदि देवी है तो मानवी भी है। शक्ति का स्वरूप है। और सामाजिक चेतना से मुक्त है-
तोड़ो, तोड़ो, तोड़ो कारा
पत्थर की, निकले फिर,
गंगा-जल-धारा।
गृह-गृह की पार्वती।
पुनः सत्य-सिुन्दर-शिव को सँवारती
उर-उर की बनो आरती।
निराला जी ने अपने सम्पूर्ण गीतिकाव्य में समाज की किसी न किसी ऐसी मान्यता को छुआ है जो समाज के लिये अहितकर है। निराला जी की ‘सरोज स्मृति’ जिसमें निराला जी ने कान्यकुब्जीय ब्राह्मण समाज की ऐसी कुत्सित मान्यताओं पर प्रहार किये हैं जो कुत्सित और घृणित भी हैं। जिसमें प्रमुख है विवाह, ब्राह्मणत्व, दहेज। सरोज स्मृति में कवि की व्यक्तिगत व्यथा युग की व्यथा बन गई है।
अर्थ की विपन्नता में पिता की स्थिति और पुत्री को चीनांशुक पहना कर न रख पाना एक पिता के हृदय की ऐसी करुण वेदना है जो उन्हें कवि-कर्म अपना कर मिली थी-
धन्ये मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका !
सोचा है नत हो बार-बार
यह हिन्दी का स्नेहोपहार,
कवि जीवन में व्यर्थ भी व्यस्त
लिखता अवाध गति मुक्त छंद,
पर संपादक गण निरानन्द
वापस कर देते पढ़ सत्वर।
यह हिन्दी के कवि का सम्मान था जिसे सदैव आर्थिक विपन्नता ही मिली थी। अपनी ही भाषा हिन्दी का जो सम्मान आज भी देश में है वह किसी से छिपा नहीं है। फिर उस समय में हिन्दी के आधार कवि को और मिल भी क्या सकता था क्योंकि तब तो स्थिति और भी दयनीय होगी।
हमारे ब्राह्मण समाज में कन्या का बड़ा होना माँ-बाप की चिन्ता का कारण बनता है। अच्छे कुल और अच्छे वर की तलाश, माँ-बाप को झकझोरने लगती है-
सास ने कहा लख एक दिवस
      ‘‘भैया अब नहीं हमारा बस,
पालना पोसना रहा काम,
देना सरोज को धन्य-धाम,
शुचिवर के कर, कुलीन लखकर
है काम तुम्हारा धर्मोŸार,
अपने घर रहो ढ़ूँढ़ कर वर
जो योग्य तुम्हारे, करो ब्याह
होंगे सहाय हम सहोत्साह।
सरोज तो एक गरीब कवि पिता की बेटी थी। उसके लिये वर इस कान्यकुब्जीय ब्राह्मणों के यहाँ बहुत दुष्कर था-
ये कान्यकुब्ज-कुल, कुलांगार
खाकर पत्तल में करें छेद
इनके कर कन्या अर्थ खेद
इस विषय-बेलि में विष ही फल।
क्योंकि इस समाज में मोटा दहेज है तो पुत्री का ब्याह किसी भी पिता के लिये दुष्कर कार्य नहीं है। ब्राह्मण समाज में जहाँ अशिक्षा है जिन्हें जीवन जीने का तरीका भी नहीं मालूम ऐसे कनौजियों को अपना सब कुछ दहेज में देकर पुत्री का ब्याह करना कवि को उचित नहीं लगता। इसीलिये वह एक साहित्यिक योग्य नवयुवक के मिलने पर विवाह की सारी मान्यताओं को तोड़कर अपनी सरोज का विवाह-कर्म करते हैं।
निराला जी ने ‘सरोज स्मृति’ में जिन मान्यताओं पर प्रहार किया है वे सभी मान्यतायें केवल उन्हीं की वयक्तिगत नहीं हैं बल्कि पूरे समाज के साथ हैं। समाज की ऐसी मान्यतायें जो समाज में विषमता की, अव्यवस्था को जन्म देती हैं, उन्हें तोड़कर नवीन आदर्श मान्यताओं की स्थापना करने का प्रयास किया है। वास्तव में निराला जी ने अपने इन सामाजिक प्रगतिशील गीतों में सांस्कृतिक जीवन के टूटते हुये स्वप्नों को नवनिर्माण का स्वर दिया है। समाज में स्वस्थ व्यवस्थित और आदर्श मान्यताओं को स्थापित करने का प्रयास किया है।

3-राष्ट्रीय आदर्श

निराला जी के गीतिकाव्य में राष्ट्र-प्रेम की अभिव्यक्ति बड़े ही सशक्त रूप में व्यक्त हुई है। उनका यह राष्ट्र-प्रेम प्राचीन समृद्धिशाली सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की स्मृति पर निर्मित होकर वर्तमान में देशोत्थान की भावना बनी है। निराला जी की राष्ट्रीयता देश-धर्म तथा जाति आदि संकीर्ण मान्यताओं से परे होकर तन-मन से देश को समर्पित होने का प्रयास है। “निराला की राष्ट्रीयता भारत की इस मिट्टी में उगती, पनपती है परन्तु इससे प्रफुल्लित और पल्लवित होती हुई समस्त मानवता को अपने में समेट लेती है।”
निराला जी के इस राष्ट्र-प्रेम में कुछ राष्ट्रीय आदर्श भी हैं, जिनकी स्मृति निराला जी को बराबर रही है, वे हैं- प्राचीन ऐतिहासिक भारतीय संस्कृति, तुलसीदास, राम, विवेकानंद, रवीन्द्र, गुरुगोविन्द सिंह, आदि। इन आदर्शों की अनुकरणीय स्मृति से निराला में अदम्य साहस, अपराजित स्वाभिमान, तथा ओज भरी वाणी मुखर होती है जो उनके राष्ट्र-प्रेम के स्वस्थ रूप को हमारे सम्मुख रखती है। निराला जी के राष्ट्र-गीतों का स्वर भारत के स्वाधीनता संग्राम के समय का है। फलस्वरूप इन गीतों की राष्ट्रीय भावना में राष्ट्र वंदना, सांस्कृतिक चेतना, स्वतंत्रता का स्वर, मानव की व्यथा, उसके साथ संवेदना तथा तत्कालीन सामाजिक व्यवस्था के प्रति आक्रोश की प्रवृत्ति दिखाई देती है।
भारतीय समाज में पराधीनता पर विवश चुप बैठे हुये लोगों पर उनका आक्रोश स्वाभाविक है। क्योंकि वह देश-प्रेमी व्यक्ति हैं-
मेरे साथ मेरे विचार
मेरे जाति-
मेरे पददलित-
मौन है निद्रित हैं-
स्वप्न में भी पराधीन !
कितनी बड़ी दुर्बलता !
समझा मैं,
भय ही व्यवस्था जनक है,
निर्भय अपने को
और दुर्बल समाज को
करके दिखाना है-
‘स्वाधीन’ का ही
एक और अर्थ ‘निर्भय’ है।
निराला जी निर्भय भारत को देखना चाहते हैं पराधीन भारत को नहीं। ‘खण्डहर’ को देख उन्हें अपने देश का गौरवशाली अतीत याद आता है। जैमिनि, पतंजलि, व्यास जैसे विद्वान ऋषि गण याद हैं जो भारत की संस्कृति निर्माण में अनुकरणीय रहे, याद आते हैं राम-कृष्ण, भीम, अर्जुन, भीष्म जैसे वीर पुरुष जिन्होंने अपनी वीरता से अपने देश का सम्मान बढ़ाया था ऐसे सम्मानित अतीत वाले भारत की वर्तमान दुर्दशा देख संतृप्त हो ‘खण्डहर’ से पूछते हैं-
खण्डहर खड़े हो तुम आज भी ?
अद्भुत अज्ञात उस पुरातन के मलिन साज
विस्मृति की नींद से जगाते हो क्यों हमें-
करुणा कर, करुणामय गीत सदा गाते हुये ?
‘दिल्ली’ शीर्षक गीत में यह जानकर कि यही भीम, अर्जुन और भीष्म जैसे कर्मठ वीरों की कर्म-स्थली है। गीता का ज्ञान-भेद यहीं पर, कृष्ण ने अर्जुन को दिया था। तभी वे कहते हैं-
यह वही देश है
परिवर्तित होता हुआ ही देखा गया जहाँ
भारत का भाग्य चक्र ?
आकर्षण तृष्णा का
सींचता ही रह गया जहाँ पृथ्वी के देशों को
संसृति के शक्तिमान दस्युओं का अदमनीय
पुनः पुनः बर्वरता विजय पाती गई
सभ्यता पर संस्कृति पर।
उपरोक्त पंक्तियों में किस तरह भारत विदेशियों का गुलाम बना स्पष्ट संकेत है। इसी तरह सहस्राब्दि, यहीं, यमुना के प्रति, राम की शक्तिपूजा, तुलसीदास1 तक कहीं भी अपने देश की स्वर्णिम संस्कृति को नहीं भूले हैं। ‘तुलसीदास’ में मुगलों के शासन और अस्त होते हुये भारत के सांस्कृतिक सूर्य का बड़ा ही सजीव वर्णन निराला जी ने किया है।
‘महाराज शिवाजी का पत्र’ और ‘जागो फिर एक बार’ से निराला जी स्वाधीनता के लिये मर मिटने तक की प्रेरणा देशवासियों को दी है।
हाय री दासता
पेट के लिये ही
लड़ते हैं भाई-भाई
कोई तुम ऐसा भी कीर्तिकामी।
कविता की उपरोक्त पंक्तियों से वर्तमान की पराधीन स्थिति पर कवि का आक्रोश फूट पड़ा है। ऐसे में पराधीनता से मुक्ति के लिये कविवर क्रांति चाहते हैं-
आओ वीर, स्वागत है,
सादर बुलाता हूँ।
हैं जो बहादुर समर के,
वे मरके भी
माता को बचायेंगे।
शत्रुओं के खून से
धो सके यदि एक भी तुम माँ का दाग,
कितना अनुराग देशवासियों का पाओगे।
‘शिवाजी’ गुरु गोविन्दसिंह जैसे आदर्शवीर पुरुषों की स्मृति, पराधीन निवासियों में स्वाधीनता का मंत्र फूँकने का प्रयास है। सवा-सवा लाख पर एक सिर को चढ़ा देने की तमन्ना साहस का उद्घोष है-
शेरों की माँद में
आया है आज स्यार-
जागो फिर एक बार।
सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को छूने वाले वीरता भरे कवि के इन गीतों से हम कवि को मानवता की विशाल भूमि पर अवस्थित होते देखते हैं। कवि चाहते हैं कि हम पराधीन न रह कर स्वाधीन हों, सब कुछ हमारे देश का हो, हम अपने देश के हों-
सारी सम्पत्ति देश की हो
सारी आपत्ति देश की बने,
जनता जातीय वेश की हो
वाद से विवाद यह ठने।
अपने इस प्रयास में देश में रहने वाले- हिन्दू-मुसलमान, ईसाई, सिक्ख सभी जातिगत नहीं मनुष्य बनकर इस देश में एकता से रहें । बस यही मनोभाव निराला जी चाहते हैं। निराला जी को अपने भारत पर गर्व है। माँ भारती के प्रति अगाध श्रद्धा है। वीणावादिनि मातृ शारदे की वंदना करते हुये बार-बार निराला जी भारत में स्वतंत्रता का अमृत बरसता हुआ देखना चाहते हैं। और माँ से प्रार्थना भी करते हैं-
वर दे वीणा वादिनि वर दे !
प्रिय स्वतंत्र-रव अमृत-मंत्र नव
भारत में भर दे !
काट अंध उर के बंधन-स्तर
बहा जननि, ज्योतिर्मय निर्झर,
कलुष-भेद-तम हर प्रकाश भर
जगमग जग कर दे !
नव गति नव लय, ताल-छंद नव,
नवल कण्ठ, नव जलद-मंद्र रव,
नव नभ के नव विहग वृंद को
नव पर, नव स्वर दे !
स्वतंत्रता की इस मंगल कामना में निराला जी माँ भारती का जो भव्य रूप चित्र ‘भारति जय विजय करे’ में अंकित करते हैं वह स्तुत्य है। “राष्ट्रीय स्पंदन व संस्कृति की सुधा का ऐसा सामंजस्य दुर्लभ है।”
निराला जी अपने इस प्रयास में बार-बार माँ का स्तवन कर पराधीनता के कारावरण से मुक्ति की प्रार्थना करते हैं। मनुष्य जीवन के समस्त स्वार्थों को माँ के चरणों में बलि चढ़ा देना चाहते हैं।
और भारत में ऐसे शक्तिमय श्रेष्ठ, वीर मनुष्यों की उपस्थिति चाहते हैं जो भारत की रक्षा कर सकें। क्योंकि उनके लिये तो-
भारत की जीवन धन,
ज्योतिर्मय परमरमण।
इस प्रकार हम देखते हैं कि निराला जी का राष्ट्र-प्रेम विविध भाव रूपों के साथ अभिव्यक्त हुआ है। भव्य ऐतिहासिक, संस्कृति की स्मृति, सामाजिक पराधीनता और मानवीय संवेदना यह तीनों स्तर एक साथ विद्यमान हैं। अपने राम, कृष्ण, भीष्म, अर्जुन, शिवाजी, गुरुगोविन्द सिंह, गांधी, बुद्ध, विवेकानंद सदृश आदर्श पुरुषों के स्मरण के साथ भारत में स्वाधीनता का आवेशमय स्वर निराला जी ने देना चाहा है। क्योंकि निराला का राष्ट्र प्रेम आत्म-गौरव से परिपूर्ण है। उसमें पराधीनता का कोई स्थान है ही नहीं।

4-धार्मिक चिन्तन 

निराला जी ने अपने काव्य में तत्कालीन समस्याओं, सामाजिक मान्यताओं और मानवीयता को ही अभिव्यक्ति नहीं दी है बल्कि पुरातन और सनातन भारतीय संस्कृति के स्वर को अपने गीतिकाव्य में उदात्त रूप में झंकृत किया है। धार्मिक चिन्तन की दृष्टि से निराला जी का काव्य विविध भाव-चित्रों का संगम है। “वे भारतीय संस्कृति के व्याख्याता हैं। पुरातन काल से चली आती भारतीय-साधना -परम्परा को उन्होंने अपनी सहज संकल्पात्मिकता बुद्धि एवं स्नेहासिक्त उन्नत प्रबुद्ध भावना के समन्वय से विकास की नई दिशा दी है।”

निराला जी का धार्मिक चिन्तन भावना के धरातल को छूता हुआ उनके गीतों में मुखर हुआ है। इन गीतों में कहीं करुणा की और कहीं गंभीर दर्शन की भाव गंगा प्रवाहित हुई है। व्यक्तिगत जीवन की अतिशय संवेदना और कठोरता तथा मानवीय व्यथाओं तथा सामाजिक विषमताओं को प्रत्यक्ष अनुभव करने वाले निराला का धार्मिक चिंतन भी मानवीयता के स्वर से झंकृत हो उठा है। भारतीयता के प्रबल समर्थक एवं अनुयायी निराला जी की समस्त दार्शनिक, आध्यात्मिक एवं रहस्य की मान्यताओं के पीछे उनका वैदान्तिक एवं औपनिषदिक स्वर ही प्रबल रहा है। अपने प्राचीन, सनातन धर्म एवं संस्कृति के प्रति असीम श्रद्धा, दर्शन के प्रति अनुराग, वेद-उपनिषद की सरस वाणी का अनुशीलन और रामकृष्ण परमहंस, विवेकानंद, शंकराचार्य जैसे महापुरुषों के आदर्शों का का अनुकरण आदि ने कवि की जीवन दृष्टि एवं साधना के चिंतन को भारतीय सनातन-शाश्वत आलोक प्रदान किया। जिसके फलस्वरूप उनके गीतों में भक्ति, प्रार्थना के करुणा विगलित स्वर एवं अध्यात्म दर्शन की उदाŸा पीठिका निर्मित हुई है।
अतः स्पष्ट है कि निराला जी का धार्मिक चिंतन उनके काव्य में व्यावहारिक यथार्थवादी मानवीय संवेदना से युक्त, आध्यात्मिक तथा विशुद्ध वेदान्तिक दर्शन दानों ही स्वरूपों के साथ विद्यमान है।
निराला जी धार्मिक चिंतन में भाव प्रधान, प्रार्थना एवं भक्ति के गीत हैं, तो बौद्धिक चिंतन प्रधान, आध्यात्मिक, दार्शनिक एवं रहस्य की भावना से युक्त गीत भी हैं। निराला जी की इस धार्मिक भावना की स्थितियों को क्रमशः ऐसे भी रखा जा सकता है।
                 
 धार्मिक चिन्तन
भावनात्मक                   
बौद्धिक
भक्ति और प्रार्थना परक गीत             
आध्यात्मिक या दार्शनिक     
रहस्यवादी गीत

निराला के धार्मिक चिंतन के इस वैविध्यपूर्ण स्वरूप का क्रमशः विवेचन निम्नलिखित प्रकार से है।

(अ) भक्ति या प्रार्थना-

निराला जी के गीतिकाव्य के एक बहुत बड़े भाग में भक्ति का स्वर पर्याप्त भास्वर और मुखर है। भारत भूमि तो सनातन काल से ही धर्म, दर्शन और भगवद्भक्ति का प्रचार रहा है। फिर अपने जीवन और समाज दोनों से ही आजीवन दुख का सहभागी होकर रहने वाला कवि निराला का भक्ति के प्रति आकर्षण स्वाभाविक ही है। छायावादी कवियों में निराला जी एकमात्र ऐसे कवि हैं जिनमें भगवद्भक्ति के इतने पवित्र एवं उच्छल भाव चित्र मिलते हैं।
महाप्राण निराला जीवन के वैषम्य से टूट अवश्य गये पर जीवन की भौतिक आँधियों में डरे नहीं हैं, झुके नहीं हैं। क्षीण तन, भग्न मन होकर, सम्बन्धियों के साथ छोड़ देने पर ही कवि प्रभु की शरण में आते हैं-1
दूरित दूर करो नाथ, अशरण हूँ गहो हाथ।
हार गया जीवन रण, छोड़ गये साथी जन,
जब तक शत मोह जाल, घेर रहे हैं कराल-
जीवन के विपुल व्याल, मुक्त करो विश्वनाथ।1
निराला जी अपने जीवन की परिणति अंततः भक्ति में ही स्वीकार करते है क्योंकि आवागमन के अनेक जीवन चक्रों में घूमने वाले मानव के लिये भक्ति ही सर्वाधिक सम्भव है-
मरा हूँ हजार मरण
पाई तब चरण-शरण।
निराला जी के प्रार्थना गीतों में कोमल और संवेदनशील भावनाओं के भक्ति हृदय की पुकार है। निराला जी के इन प्रार्थना गीतों का सूक्ष्म अवलोकन करने पर इन गीतों में भक्ति का क्रम दिखाई देता है। प्रारम्भिक भक्ति गीतों में अंधकार से प्रकाश की ओर जाने की प्रार्थना है। उसके बाद करुणा से संवेदनशील विनत माथ कवि की मुक्ति याचना का स्वर है। शरणागत की शरण में जाने के लिये कवि का आत्म निवेदन है और अंतिम रूप में प्रभु से मुक्ति की कामना है। तिमिर से प्रकाश की आकांक्षा का यह प्रयास परिमल, गीतिका, अर्चना और आराधना तक बराबर जारी रहता है। इसीलिये कवि अपने परमप्रिय का आवाहन करते हैं-
मेरे प्राणों में आओ
शत शत शिथिल भावनाओं के
उर के तार सजा जाओ।3
अपने परम श्रेष्ठ के मिलन में कभी-कभी चंचल मन अवरोधक बन जाता है अतः अपने चंचल मन को संयमित करने की प्रार्थना निराला जी अपनी ज्योतिर्मय शक्ति से करते हैं।
मन चंचल ना करो।
प्रतिपल अंचल से पुलकित कर
केवल हरो, हरो ।
कुटिल जीवन गति सांसारिक अंधकार में फँसकर रह गई है। यह अंधकार उस ज्योतिर्मय निरंजन के आशीर्वाद के प्रकाश से ही दूर हो सकता है जिसकी चमत्कृत ज्योति रश्मियों में सम्पूर्ण चराचर जगत व्याप्त है। कवि प्रार्थना करते हैं-
जीवन की गति कुटिल अंधतम जाल,
फँस जाता हूँ तुम्हें नहीं पाता हूँ प्रिय
जगमग जग में पग-पग एक निरंजन आशीर्वाद,
जहाँ नहीं कोई भय वाधा, कोई वाद-विवाद।
मुझे फेर दो प्रभु, हुर दो
इन नयनों में भूला भोर।1
कवि का स्पष्ट कथन है कि संसार के अंध तम में घिरे मेरे कथन को सुन, व्यथित मन से कपोलों पर ठुलक आये वेदना के अश्रुकणों को हे ज्योतिर्मय महाप्रभु तुम ही पोंछ लेते हो और मेरे अंधकार से परिव्याप्त जीवन में नव प्रभात भर देते हो।
नैराश्य जड़ता, आत्मक्षय, दैन्य के कारुणिक अंधकार हे ज्योतिर्मय महाशक्ति आप ही हँसकर मेरा पथ आलोकित कर सकती हो। शक्ति के इस आवाहन में कवि सर्वाधिक प्रार्थना प्रकाश पुंज, तिमिर वारण सूर्य से करते हैं-
सविते कविता को यह वर दो,
हृदय निकेतन स्वर मय कर दो-
तिमिर दारण मिहिर बरसो,
ज्योति के कर अंध कारा-
गार जग का सजग वर दो।
इस ज्योतिर्मय महाशक्ति से मुक्ति की प्रार्थना कवि केवल अपने लिये ही नहीं बल्कि सम्पूर्ण मानव को अपने साथ लिये है। कवि की यह प्रार्थना सार्वजनिकता की ओर सदा उन्मुख है। इसीलिये माता के आदेश पर वह जीवन का अवलम्ब (सेवा) मान लेते हैं।
जीवन का अवलम्ब है सेवा
माता का आदेश यही।
निराला जी की भक्ति में शक्ति का स्वरूप ‘कबीर’ की तरह मातृ शक्ति के रूप में अधिक है। इसका कारण बंग भूमि के साथ अधिक सान्निध्य का रहना है जहाँ मातृ शक्ति पूजन ही प्रमुख है।1 इसी प्रभाववश निराला ने शक्ति का ग्रहण नारी भाव में किया है। उनकी शक्ति निराकार, निरंजन नित्य एवं विराट रूप है। “कवि अपने विराट काव्य सृजन की उर्वरा भूमि पर मातृ भक्ति के पुष्प लगाता आया है।” इस महाशक्ति में कवि की आस्था है कि उस एक तŸव में ही भक्ति का सम्पूर्ण वैभव निहित है इसीलिये कवि भाव विभोर होकर पुकार उठते हैं-
तुम्हीं रहो, मिल जाये जगत तब
एक तŸव में, ज्यों भव-कलरव
ज्योत्सनामपि, तम को किरणासव
मिला मिला उर लो।

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